पं.राजेंद्र प्रकाश “निर्भय”

जनश्रुति के अनुसार ‘मांगलिक दोष’ को दांपत्य सुख के लिए हानिकारक माना गया है। यह बात आंशिकरूपेण सत्य भी है, किंतु पूर्णरूपेण नहीं। जैसा कि हम पिछले अध्याय में स्पष्ट कर चुके हैं कि दांपत्य सुख के प्राप्त होने या ना होने के लिए एकाधिक कारक उत्तरदायी होते हैं, केवल ‘मांगलिक दोष’ के जन्म पत्रिका में होने मात्र से ही दांपत्य सुख का अभाव कहना उचित नहीं है।
सर्वप्रथम ‘मांगलिक दोष’ किसे कहते हैं, इस बात पर हम पाठकों का ध्यान आकृष्ट करना चाहेंगे। सामान्यत: किसी भी जातक की जन्म पत्रिका में लग्न चतुर्थ, सप्तम, अष्टम और द्वादश भाव में से किसी भी एक भाव में मंगल का स्थित‍ होना ‘मांगलिक दोष’ कहलाता है।
‘लग्ने व्यये पाताले जामित्रे चाष्टमे कुजे।
कन्याभर्तुविनाश: स्वाद्भर्तुभार्याविनाशनम्।।’
कुछ विद्वान इस दोष को तीनों लग्न अर्थात लग्न के अतिरिक्त चंद्र लग्न, सूर्यलग्न और शुक्र से भी देखते हैं। शास्त्रोक्त मान्यता है कि ‘मांगलिक दोष’ वाले वर अथवा कन्या का विवाह किसी ‘मांगलिक दोष’ वाले जातक से ही होना आवश्यक है।
‘कुजदोषवती देया कुजदोषवते किल।
नास्ति न चानिष्टं दामप्तत्यो: सुखवर्धनम्।।’
ज्योतिष शास्त्र में सूर्य, शनि और राहु को अलगाववादी ग्रह एवं मंगल को मारणात्मक प्रभाव वाला ग्रह माना गया है। अत: लग्न, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम और द्वादश भाव में स्थित होकर मंगल जीवनसाथी की आयु की हानि करता है।

यहां हम स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि केवल मांगलिक दोष के होने मात्र से ही यहां जीवनसाथी की मृत्यु या दांपत्य सुख का अभाव कहना सही नहीं है अपितु जन्म पत्रिका के अन्य शुभाशुभ योगों के समेकित अध्यनन से ही किसी निर्णय पर पहुंचना श्रेयस्कर है किंतु ऐसा नहीं है कि यह दोष बिलकुल ही निष्प्रभावकारी होता है।

जन्म पत्रिका में ऐसी अनेक स्थितियां हैं, जो मंगल दोष के प्रभाव को कर करने अथवा उसका परिहार करने में सक्षम हैं। इनमें से कुछ योगों के बारे में हम यहां उल्लेख कर रहे हैं।
1. यदि किसी वर-कन्या की जन्म पत्रिका में लग्न, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम और द्वादश स्थान में अन्य कोई पाप ग्रह जैसे शनि, राहु, केतु आदि स्थित हों तो ‘मंगल दोष’ का परिहार हो जाता है।
2. यदि मंगल पर गुरु की पूर्ण दृष्टि हो तो मंगल दोष निष्प्रभावकारी होता है।
3. यदि लग्न में मंगल अपनी स्वराशि मेष में अथवा चतुर्थ भाव में अपनी स्वराशि वृश्चिक में अथवा मकरस्थ होकर सप्तम भाव में स्थित हो, तब भी मंगल दोष निष्प्रभावकारी हो जाता है।
4. यदि मंगल अष्टम भाव में नीच राशि कर्क में स्थित हो अथवा धन राशि स्थित मंगल द्वादश भाव में हो तब मंगल दोष निष्प्रभावकारी हो जाता है।
5. यदि मंगल अपनी मित्र राशि जैसे सिंह, कर्क, धनु, मीन आदि में स्थित हो तो मंगल दोष निष्प्रभावकारी हो जाता है।
6. कुछ विद्वानों के अनुसार यदि अष्टकूट का मिलान 25 गुणों से अधिक होता है और ग्रह मैत्री के पूरे गुण मिलते हैं और वर-कन्या के गुण एक समान रहते हैं, तब भी मंगल दोष का निवारण समझना चाहिए।
7. यदि वर-कन्या की जन्म पत्रिका में मंगल की चंद्र अथवा गुरु से युति हो तो मंगल दोष मान्य नहीं होता है।
8. वर-कन्या की जन्म पत्रिका में लग्न से, चंद्र से एवं शुक्र से जिस मांगलिक दोषकारक भाव अर्थात लग्न, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम व द्वादश जिस भाव में मंगल स्थित हो, दूसरे की जन्म पत्रिका में भी उसी भाव मंगल के स्थित होने अथवा उस भाव में कोई प्रबल पाप ग्रह जैसे शनि, राहु-केतु के स्थित होने से ही मांगलिक दोष का परिहार मान्य होता है।

यदि वर-कन्या दोनों के अलग-अलग भावों में मंगल अथवा मांगलिक दोषकारक पाप ग्रह स्थित हों, तो इस स्‍थिति में मंगल दोष का परिहार मान्य नहीं होता है। अत: किसी विद्वान दैवज्ञ से गहनता से जन्म पत्रिका का परीक्षण करवाकर ही ‘मंगल दोष’ का निर्णय एवं परिहार मान्य करें।

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