ग्रहण में क्‍या करे ? क्‍या न करें ?

रात में सूर्य ग्रहण और दिन में चन्‍द्रग्रणहण पड़े तो उसमें स्‍नान- दान कभी नहीं करना चाहिए- सूर्यग्रहो यदा रात्रौ दिवा चन्‍द्रग्रहो यदि। तत्र स्‍नानं न कुर्वीत दद्याद्दानं न च क्‍वचित्‍ ।। बृ. दै. ३३.४ ग्रहण में गणित स्‍पर्श मोक्षकाल की मान्‍यता होती है। सूर्य और चन्‍द्र ग्रहण में मोक्ष, स्‍नान ग्रहसणमुक्‍त बिम्‍ब को देखकर करना चाहिए। ग्रस्‍तोदित ग्रहण में ग्रस्‍त को देखकर स्‍नान और ग्रस्‍तास्‍त होते देखकर मोक्षस्‍नान किया जाता है। ग्रस्‍तास्‍त ग्रहण में दूसरे दिन बम्बि को देखकर भोजन करना चाहिए। ग्रहण के प्रारम्‍भ में स्‍नान-जप, मध्‍यकाल में हवन, मोक्ष से पूर्व दन तथा मोक्ष होने पर स्‍नान करना चाहिए- स्‍पर्शे स्‍नानं जपं कुर्यान्‍मध्‍ये होमं सुरार्चनम्‍ । मुच्‍यमाने सदा दानं विमुक्‍तौ स्‍नानमाचरेत्‍ ।। बृ.दै. ३३.११। ग्रहण मोक्ष के पश्‍चात्‍ स्‍नान न करने पर सूतक लगता है। अत: मोक्ष स्‍नान अवश्‍य करा चाहिए ( बृ. दै. ३३.१३ )। सूर्यग्रहण में चार याम ( १२ घण्टा ) पूर्व तथा चन्‍द्रग्रहण में तीन याम ( ९ घण्टा ) पूर्व अन्‍न-जल को त्‍याग देना चाहिए। यह नियम बाल, वृद्ध और रोगी के ऊपर नहीं लगता है। सूर्यग्रहण से १२ घण्‍टा पूर्व तथा चन्‍द्रग्रहण से ९ घण्‍टा पूर्व मंदिन बन्‍द कर दिये जाते है। चन्‍द्रग्रहण में मोक्ष के पश्‍चात्‍ स्‍नान कर भोजन करने का विधान है- स्‍नात्‍वाश्‍नयाच्‍च मुक्‍तये:। बृ.दै. ३३.१७ । ग्रहण में जप, दान, होम वर्जित नहं होता। ग्रहण में पके हुए अन्‍न का त्‍याग करना चाहिए। वस्‍त्र के साथ स्‍नान करना चाहिए। पानी, दूध, घी,दह, मट्ठा, तेल, काज्जी में तिल व कुश छोड़ने से ग्रहण का दोष नहीं लगता- अन्‍नं पक्‍वमिह त्‍याजयं सवसनं ग्रहे। वारितक्रारनालादि तिलैर्दभैर्न दुष्‍यते।। बृ. दै. ३३.२०। सूर्य और चन्‍द्रमा के ग्रहण्‍ में सभी प्रकार का दान भूमिदान के बराबर होता है। सभी विप्र ब्रह्रा् के समान हेते हैं । सभी जल गंगाजल के तुल्‍य होता है- सर्वं भूमिसमं दानं सर्वे ब्रह्रा् द्विजा: । सर्वं गग्‍डासमं तोयं ग्रहण चन्‍द्रसूर्ययो:। बृ.दै.३३.२३। मार्कण्‍डेय ऋषि के अनुसार कूप के जल से झरना का जल, झरने के जल से सरोवर का जल श्रेष्‍ठ होता है। सरोवर से नदी का जल तथा नदी से यमुना आदि का जल एवं यमुना आदि नदियों से गग्‍डा का जल श्रेष्‍ठ होता है। ग्रहण्‍ के समय गग्‍डा सागर में स्‍नान करना सर्वश्रेष्‍ठ होता है। कनखल ( हरिद्वार ), प्रयाग, पुष्‍कर, कुरूक्षेत्र एवं काश में ग्रहण स्‍नान का फल सर्वाधिक होता है। ग्रहण में जल से स्‍नान नहीं करना चाहिए। रोगी व्‍यक्ति को भी ग्रहण में स्‍नान करना चाहिए चाहे गर्म जल ही क्‍यों न हो। ग्रहण पश्‍चात्‍ स्‍नान न करने से रोग, दु:ख और अकालभय की प्राप्ति होती है। रविवार के दिन सूर्यग्रहण तथा सोमवार के दिन चन्‍द्रग्रहण पड़ने से चूड़ामणि योग होता है इसमें स्‍नान, दान, होम का कोटिगुणित फल होती है- सूर्यग्रह: सूर्यवारे यदा स्‍यात्पाण्‍डुनन्‍दन। चूडामणिरिति ख्‍यातं सोमे सोमग्रहस्‍तथा।। बृ.दै.३३.६२। ग्रहण में गोदान से सूर्यलोक प्राप्ति, वृषदान से शिवलोक प्राप्ति, स्‍वर्णदान से ऐश्‍वर्य प्राप्ति, स्‍वर्णसर्प दान से राज्‍य प्राप्ति, अश्‍वदान से वैकुण्‍ठ प्राप्ति, सर्पमुक्ति से ब्रह्रा्लोक प्राप्ति, भूमिदान से राजपद प्राप्ति तथा अन्‍नदान से सुख की प्राप्ति होती है ( बृ.दै.३३.६५ )। ग्रहण में निम्‍नलिखित कार्य नहीं करना चाहिए- १. पत्रछेदन २. तिनका ३. काष्‍ठभेदन ४. पुष्‍प चयन ५. बालकर्तन ६. वस्‍त्रकीसफाई ७. दंतधावन ८. कठोरवाणी ९. भोजन १०. मैथुन ११. घोड़ा १२. हाथी की सवारी १३. गो १४. भैंस का दोहन १५. यात्रा १६. शयन १७. मल १८. मूत्र त्‍याग।

                       (35) मृत्‍यु  ( अन्‍त्‍येष्टि ) संस्‍कार

मृत्‍यु ( अन्‍त्‍येष्टि ) एक महत्‍वपूर्ण संस्‍कार है। कभी कभी उपयुक्‍त पुरोहित या पंडित के अभाव में यह कर्मकाण्‍ड नही हो पाता है; जबकि यह अत्‍यन्‍त सीधा कर्मकाण्‍ड है। मृत्‍यु से लेकर पीपल घट स्‍थापन तक कि यह साधारण विधि यहॉ दे दी गयी है। थोड़ा सा भी पढ़ा लिखा आदमी इसे आसानी से कर सकता है।

पिण्‍डदान –

मृत्‍यु स्‍थान से लेकर चिता के जल जाने के बाद तक कुल छ: पिण्‍ड दान दिये जाते हैं। बिना घबड़ाये सुस्थिर चित से पिण्‍डदान कर्म करना चाहिए।

जौ के आटे में घी, तिल मिला कर छ: पिण्‍ड बनाये। दायें हाथ से ही इसे बनाते है- गोला, चिकना। जौ के आटे के अभाव में चावल का आटा लेना चाहिए। थोड़ा- सा आटा बचाये रखते है। यह सबसे अंत में श्मशान देवों को दिया जाता है। इसे अर्थी की दायीं ओर दक्षिण मुख बैग्‍ड कर बनाते है पिण्‍ड में छिद्र नहीं होना चाहिए।

१.      मृत्‍युस्‍थान, २. द्वारस्थान, ३. चौराहा स्‍थान, ४. विश्रामस्‍थान, ५. काष्‍ठचयन ( चिता पर ), ६.अस्थि संचयन ( चिता जल जाने के बाद ) श्‍मशान में, एक एक पिण्‍डदान किया जाता है-

          मृतस्‍थाने तथा द्वारे चत्‍वरे ताक्र्ष्‍यकारणात्‍ ।

          विश्रामे काष्‍ठचयने तथा सच्‍जयने च षट् ।।

शवनामक पहला पिण्‍ड

       जनेऊ को दयें कंधे पर रख कर दायें हाथ में कुश, जल, तिल लेकर संकल्‍प लेते है- अद्य अमुक गोत्र: अमुक शर्मा/ वर्मा/ गुप्‍त / दासोsहम्‍ अमुक गोत्रस्‍य/ गोत्राया: अमुक प्रेतस्‍य/प्रेताया: प्रेतत्‍वनिवृतिपूर्वकं भूम्‍यादिदेवतातुष्‍टयर्थ मृतिस्‍थाने शवनामकं पिण्‍डदानं करिष्‍ये। ( मै अमुक गोत्र का अपने पिता, आपन माता या सम्‍बन्‍धी का प्रेतत्‍वानिवृति कामना से भूमिदेवता क तुष्टि हेतु मृत्‍यु स्‍थान पर शवनामक पिण्‍डदान कर रहा हॅूं ।) अंगूठा तर्जन के बीच से इसे पृथ्‍वी पर गिरायें ( इसे पितृतीर्थ कहते हैं )।

संकल्‍प करने के बाद तीन कुश भूमि पर स्‍थापित करे एवं पिण्‍ड, जल, तिल, चन्‍दन, सफेद फूल लेकर कहें- अद्य अमुक………..गोत्र/ गोत्रे, अमुक…………………. प्रेत/ प्रेते मृतिस्‍थाने शवनामक एष पिण्‍ड: ते मया दीयते, तवोपतिष्‍ठताम् । ( स्‍त्री होने पर गोत्रे एवं प्रेते कहा जाता है) पिण्‍ड को नीचे कुशा पर रखें। पुन: इसे कुशा सहित उठाकर अर्थी पर रख दें। प्रार्थना करें- अनादिनिधनो देव: शंखचक्रगदाधर:। अक्षम्‍य: पुण्‍डरीकाक्ष: प्रेतमोक्षप्रदोभव।।

पान्‍थ नाकम दूसर पिण्‍ड

   अर्थी को दरवाजे पर रखे। अपसव्‍य हो कर दक्षिण मुख दायें हाथ में त्रिकुश, जल, तिल, लेकर अ‍र्थी की दाहिनी ओर बैठ कर संकल्‍प बोलें – अद्य अमुकगोत्र: /………………. अमुक शर्मा/ वर्मा/ गुप्‍त / दासोsहम्‍ अमुक गोत्रस्‍य/ गोत्राया: अमुक प्रेतस्‍य/प्रेताया: प्रेतत्‍वनिवृतिपूर्वकं द्वारस्‍थाने पान्‍थनामकं पिण्‍डदानं करिष्‍ये। जल भूमि पर पितृतीर्थसे छोड़े । हाथ में पिण्‍ड , कुश , जल, तिल लें- अ़द्य- गोत्र/गोत्रे………… प्रेत/ प्रेते द्वारस्‍थने पान्‍थनामक एष पिण्‍ड: ते मया दीयते तवोपतिष्‍ठताम्‍ । तीन कुश के ऊपर पितृतीर्थ से पिण्‍डदान कर प्रार्थना करें अनादिनिधनो देव: शंखचक्रगदाधर:। अक्षम्‍य: पुण्‍डरीकाक्ष: प्रेतमोक्षप्रदोभव।।

   खेचर नामक तीसरा पिण्‍ड

‘ राम नाम सत्‍य है ’  या ‘ हरि बोल द् ’ कहते हुए शव यात्रा आरम्‍भ करें । चौराहा आने पर अर्थी को भूमि पर उतरमुख रखें। दक्षिणमुख अपसव्‍य होकर त्रिकुश , जल, तिल लेकर संकल्‍प करें  अद्य अमुक गोत्रे शर्मा/ वर्मा/ गुप्‍त / दासोsहम्‍ अमुक गोत्रस्‍य/ गोत्राया: अमुक प्रेतस्‍य/प्रेताया: प्रेतत्‍वनिवृतिपूर्वकं चतुष्‍पथे खेचरनामकं पिण्‍डदानं करिष्‍ये। जल भूमि पर गिरा दें और कुश भूमि पर रखे। पुन: पिण्‍ड लेकर बोलें- अद्य अमुक गोत्र/ गोत्रे अमुक प्रेत/प्रेते  चतुष्‍पथे खेचरनामक एष पिण्‍ड: ते मया दीयते, तवोपतिष्‍ठताम्‍ । तीन कुश के ऊपर पितृतीर्थ से पिण्‍ड रखे। पिण्‍ड को अर्थी पर रख दें और सव्‍य हो कर प्रार्थना करें- अनादिनिधनों देव: शंखचक्रगदाधर: । अक्षम्‍य: पुण्‍डरीकक्ष: प्रेतमोक्षप्रदोभव।।

भूत नामक चौथा पिण्‍ड

विश्राम स्‍थान पर पहॅुच कर अर्थी को भूमि पर उतर मुख रखे। दक्षिणमुख, अपसव्‍य, अर्थी के सिर के पास दायें बैठ कर संकल्‍प करें- ( त्रिकुश, जल, तिल, दायें हाथ में रहे )- अद्य अमुक गोत्रे शर्मा/ वर्मा/ गुप्‍त / दासोsहम्‍ अमुक गोत्रस्‍य/ गोत्राया: अमुक प्रेतस्‍य/प्रेताया: प्रेतत्‍वनिवृतिपूर्वकं विश्रामस्‍थाने भूतनामकं  पिण्‍डदानं करिष्‍ये। जल भूमि पर गिर दे। हाथ में पिण्‍ड लेकर बोलें – अद्य अमुक गोत्र/ गोत्रे अमुक प्रेत/प्रेते विश्रामस्‍थाने भूतनामक एषपिण्‍ड: ते मया दीयते, तवोपतिष्‍ठताम्‍ ।। कुश के ऊपर पितृती‍र्थ से पिण्‍ड रखे। पिण्‍ड को अर्थी पर रख दें और सव्‍य होकर प्रार्थना करे- अनादिनिधनो देव: शंखचक्रगदाधर:। अक्षम्‍य: पुण्‍डरीकाक्ष: प्रेतमोक्षप्रदो भव।।

साधक नामक पॉचवा पिण्‍ड

श्‍मशान में अर्थी सहित शव को स्‍नान कराकर साफ सुथर भूमि पर रखा जाता है। चार हाथ की लम्‍बी चिता उतर – दक्षिण की बनती है। चिता पर शव को उठाकर उतर सिर रखें। मुख पर घृत,कर्पूर आदि रखे। ओढ़नी को उतार कर श्‍मशानपति को दे दें। कफन नहीं उतारा जाता । नग्‍न दाह वर्जित है। चिता के ऊपर चन्‍दन, बेल, तुलसी, शमी, गूलर, आम आदि की लकड़ी रखे। सिर दाहिनी ओर बैठ कर दक्षिण मुख अपसव्‍य संकल्‍प करें-  अद्य अमुक गोत्रे शर्मा/ वर्मा/ गुप्‍त / दासोsहम्‍ अमुक गोत्रस्‍य/ गोत्राया: अमुक प्रेतस्‍य/प्रेताया: प्रेतत्‍वनिवृतिपूर्वकं चितायां शवहस्‍ते साधकनामकं पिण्‍डदानं करिष्‍ये। जल , तिल भूमि पर गिरा दें। भूमि पर तीन कुशा रख कर पिण्‍डदान का संकल्‍प करें- अद्य अमुक गोत्र/ गोत्रे अमुक प्रेत/प्रेते चितायां साधकनाम एष पिण्‍ड: ते मया दीयते , तवोतिष्‍ठताम्‍ । पितृतीर्थ से कुश पर पिण्‍ड रखें। चिता पर स्थित शव के हाथ पर पिण्‍ड को उठा कर रख दें। सव्‍य होकर प्रार्थना करें- अनादिनिधनों देव: शंखचक्रगदाधर:। अक्षम्‍य: पुण्‍डरीकाक्ष: प्रेतमोक्षप्रदो भव।।

अग्निपूजन

 चिता की अग्नि को क्रव्‍याद या क्रव्‍य कहते है। ‘ क्रव्‍यादनामाग्निं प्रतिष्‍ठापयामि ’ कहते हुए अग्नि के ऊपर गंधाक्षतपुष्‍प छोड़े। अपसव्‍य होकर चिता पर जल छिड़कें। सरपत आदि पर अग्नि को रखकर चिता की तीन या एक प्रदक्षिणा करें। ‘ असौ स्‍वर्गाय लोकाय ’ बोलते हुए सिर की ओर चिता में अग्नि लगायें।

कपालक्रिया

चिता जब आधा से अधिक जल जाए तो बांस से सिर पर चोट मारनी चाहिए । इसे कपाल क्रिया कहते है। पुन: सिर पर घृत डालें। एक एक बिते की सात लकडि़यो को लेकर चिता की परिक्रमा करते हुए एक एक बार में डालें। अन्‍त में शव का थोड़ा सा भाग लकड़ी से पकड़ कर जल में शांत करना चाहिए। पूरा शव नहीं जलाया जाता है। थोड़ा सा, कपोत ( कबूतर ) के बराबर मांस को जल में शांत करना आवश्‍यक होता है।

अस्थिसज्‍चयन नामक दठा पिण्‍ड

चिता शान्‍त होने पर अपसव्‍य दक्षिणमुख होकर त्रिकुश, तिल, जल लेकर संकल्‍प करें- अद्य अमुक गोत्रे शर्मा/ वर्मा/ गुप्‍त / दासोsहम्‍ अमुक गोत्रस्‍य/ गोत्राया: अमुक प्रेतस्‍य/प्रेताया: अस्थिसज्‍चयननिमितकं  पिण्‍डदानं करिष्‍ये। जल को भूमि पर पितृतीर्थ से छोड़े । भूमि पर कुशा को दक्षिणाग्र रख कर हाथ में त्रकुश, तिल, जल, पिण्‍ड लेकर संकल्‍प करें- अद्य अमुख गोत्र/गोत्रे अमुक प्रेत / प्रेते अस्थिसंचयननिमितक एष पिण्‍ड: ते मया दीयते, तवोपतिष्‍ठताम्‍ । पितृतीर्थ से कुश पर पिण्‍ड रख दें। इस पिण्‍ड को उठा कर नदी या जल में डाल दें। सव्‍य होकर छ: पिण्‍ड प्रार्थना करें- अनादि निधनो देव: शंकखचक्रगदाधर:। अक्षम्‍य: पुण्‍डरीकाक्ष: प्रतमोक्षप्रदो भव।। इस प्रकार छ: पिण्‍ड दान पूर्ण होते है और शवदाह संस्‍कार पूर्ण होता है। आरम्‍भ में जो थोड़ा- सा जौ का आटा बचाया गया था उसे हाथ में लेकर श्‍मशान में रहने वाले सूक्ष्‍म आत्‍माओं और देवों को दोने में रख कर दिया जाता है, दीप जला देते है और मंत्र पढ़ते है-श्‍मशानवासिभ्‍यो देवेभ्‍यो नम:, सर्वे स्‍वभागं सदीपं बलि गृह्र्न्‍तु।

अस्थि संचयन

पलाश की दो लकडि़यों से हडिड्यों को चुनते हैं। सर्वप्रथम सिर की हडिड्यो को कनिष्‍ठा उँगल से चुनें। अन्‍त में पैर क हडिड्यों को चुनें। कुशा या रेशम के वस्‍त्र पर इन्‍हें रखें। गाय के दूध से इन्‍हें तर कर दे। इन पर स्‍वर्ण, मधु, पंचगव्‍य, घी, तिल डालते है। इन हडिड्यों में रख कर दक्षिण दिशा की ओर देखते हुए बोले- नमोsस्‍तु धर्माय। पुन: जल में प्रवेश कर पात्र को जल में डाल दें और बोलें- स में प्रीतो भवतु। जल से बाहर आकर सूर्य दर्शन करें और ब्रह्रा्णों को दान करें। काशी में हडिड्यों को तत्‍काल गंगा में पवाहित करने की परंपरा है। यहॉ अलस अस्थिसज्‍चयन नही किया जाता है। कहीं कही हडिड्यों को गाड़ने की परंपरा है। जहॉ गाड़ने की परंपरा है वहॉ गोघृत से हडिड्यों को तर कर कुशा के ऊपर हल्‍दी से रंगा वस्‍त्र डाल कर उस पर हडिड्यों को रख कर मिट्टी से ढंक दिया जाता है।

घड़ा फोड़ना

अस्थियों को विसर्जित कर चिता पर घड़े का जल डाल कर उसे शांत किया जाता है। दाह कर्ता के कंधे पर जल भरा घड़ा रखा जाता है जिसे वह पीछे की ओर गिरा देता है और कहता है- ‘ एवं कदापि माsभूत्‍ ’ ( ऐसा कभी न हो )। दूसरे घाट पर जाकर मौन स्‍नान किया जाता है। हाथ से पानी को बायीं ओर हटाते हुए स्‍नान करते है।

तिलाज्जलि

स्‍नान करने के पश्‍चात दक्षिणमुख अपसव्‍य हो त्रिकुश, जल, तिल लेकर संकल्‍प बोलते हुए पितृतीर्थ से तिलाज्‍जलि दी जाती है-  अद्य अमुक गोत्र / गोत्रे अमुक प्रेत / प्रेते चितादाहजनिततापतृषा उपशमनाय एष तिलतोयाज्‍जलि: ते मया दीयते, तवोपतिष्‍ठताम्‍ ।। इसके बाद दाह कर्ता कपड़ा बदल ले और लंगोटी, कौपीन एवं धोती शरीर पर डाले । शवदाह करके रास्‍ते में मधुर खाने की परंपरा है।

गृहद्वर कृत्‍य – घर के दरवाजे पर आकर नम की पतियॉ चबायें। घर की महिलायें या नाई पतियों को देता है। मिर्च दॉच से काटें। अग्नि का स्‍पर्श करें। पत्‍थर पर पैर रखकर घर में प्रवेश करें। उस दिन घर में भोजन नहीं बनता है। पड़ोसी, सम्‍बन्‍धी या दुकान से मंगा कर भोजन करें। दाहकर्ता को अलग सोना चाहिए। उसके भोजन का पात्र, लोटा, बर्छी सब कुछ अलग रहता है। दाहकर्ता सब से अलग रहे। सूर्यास्‍त से पूर्व भोजन करे। पतल में भोजन करे। नमक न खाये । प्रात्‍: दस दिन फलाहार ले । गोग्रास निकाले । कौआ के लिए भी भूमि पर भोजन रखे। पूरा परिवार सूतक में मांस न बनाये न खाये। साबुन तेल का प्रयोग न करे। प्रतिदिन स्‍नान कर बन्‍धु बान्‍धव सहित जल- तिल दान दे।