श्रीमद् भागवत माहात्म्य

सच्चिदानंदस्वरुप भगवान श्रीकृष्ण को हम नमस्कार करते हैं जो जगत की उत्पत्ति, स्थिति और विनाश के हेतु तथा आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक – तीनों प्रकार के तापों का नाश करने वाले हैं।

कहते हैं कि अनेक पुराणों और महाभारत की रचना के उपरान्त भी भगवान व्यास जी को परितोष नहीं हुआ। परम आह्लाद तो उनको श्रीमद् भागवत की रचना के पश्चात् ही हुआ, कारण कि भगवान श्रीकृष्ण इसके कुशल कर्णधार हैं, जो इस असार संसार सागर से सद्यः सुख-शांति पूर्वक पार करने के लिए सुदृढ़ नौका के समान हैं।

यह श्रीमद् भागवत ग्रन्थ प्रेमाश्रुसक्ति नेत्र, गदगद कंठ, द्रवित चित्त एवं भाव समाधि निमग्न परम रसज्ञ श्रीशुकदेव जी के मुख से उद्गीत हुआ। सम्पूर्ण सिद्धांतो का निष्कर्ष यह ग्रन्थ जन्म व मृत्यु के भय का नाश कर देता है, भक्ति के प्रवाह को बढ़ाता है तथा भगवान श्रीकृष्ण की प्रसन्नता का प्रधान साधन है। मन की शुद्धि के लिए श्रीमद् भगवत से बढ़कर कोई साधन नहीं है।

यह श्रीमद् भागवत कथा देवताओं को भी दुर्लभ है तभी परीक्षित जी की सभा में शुकदेव जी ने कथामृत के बदले में अमृत कलश नहीं लिया। ब्रह्मा जी ने सत्यलोक में तराजू बाँध कर जब सब साधनों, व्रत, यज्ञ, ध्यान, तप, मूर्तिपूजा आदि को तोला तो सभी साधन तोल में हल्के पड़ गए और अपने महत्व के कारण भागवत ही सबसे भारी रहा।

अपनी लीला समाप्त करके जब श्री भगवान निज धाम को जाने के लिए उद्यत हुए तो सभी भक्त गणों ने प्रार्थना कि- हम आपके बिना कैसे रहेंगे तब श्री भगवान ने कहा कि वे श्रीमद् भगवत में समाए हैं। यह ग्रन्थ शाश्वत उन्हीं का स्वरुप है।

पठन-पाठन व श्रवण से तत्काल मोक्ष देने वाले इस महाग्रंथ को सप्ताह-विधि से श्रवण करने पर यह निश्चय ही भक्ति प्रदान करता है।

ॐ श्री सत्गुरुवे नमः ।।

भागवत जी की महिमा का रसपान करें, पद्मपुराण के माध्यम से, आरम्भ में वेदव्यासजी ने मंगलाचरण किया तो हम भी यहां पर मंगलाचरण करें!

कोई शुभ कार्य करने से पहले मंगल कामना की जाती है या मंगल आचरण किया जाता है, यही तो मंगलाचरण है!
सच्चिदाऽनन्दरूपाय 

हमारे वेदों ने, शास्त्रों ने, संतो ने दो बात बताई है! एक बात तो यह की परम तत्व का परिचय, और दूसरी बात उसकी प्राप्ती का उपाय! जब परिचय हुआ की यह रसगुल्ला है, तो फिर उसकी प्राप्ती  की इच्छा होती है! तो….प्रश्न उठता है, की गुरूदेव हम परमतत्व की प्राप्ती कैसे करें?

तो यहां पर गुरूदेव ने प्राप्ती का साधन बताया! पहले तो परिचय दिया, वो भी एक नहीं पूरे तीन प्रकार से! (१)स्वरूप परिचय (२)कार्य परिचय (३)स्वभाव परिचय! तो पहला स्वरूप परिचय-सच्चिदाऽनन्दरूपाय 

यह हुआ स्वरूप परिचय! स्वरूप कैसा है ?…. सत चित और आनन्द स्वरूप! सत शब्द से सास्वता बताई है, अब सत है ठीक है, पर सत के साथ चित याने चेतन्यता, तो चेतन्यता का होना परम आवश्यक है, नहीं तो सत जड़ हो जायेगा!  जैसे- माईक है पर बिजली नहीं है! तो?.. माईक जड़ हो गया न! इसलिए सत के साथ चित भी आवश्यक है! अब चलो ठीक है सत है चित भी है, पर आनन्द नहीं है, हां सत और चित के साथ आनन्द का होना अतिआवश्यक है! क्यों?.. क्योंकी माईक है और बिजली भी है पर वक्ता अर्थात बोलने बाला नहीं है, तो ये दोनों व्यर्थ हैं!

इसलिए यदी माईक है तो लाईट का होना आवश्यक है और माईक लाईट दोनों हैं तो वक्ता का होना  जरूरी है! अत्: सत है तो चित का होना आवश्यक है और सत चित दोनों हैं तो आनंद की अनुभूति होनी ही है! इसमें संका नहीं, तो परमात्मा कैसा है? सत्य चित्य और आनन्द स्वरूप, यह हुआ स्वरूप परिचय! किसी ने पूछा- गुरुदेव वो करते क्या हैं? तो यहां पर कार्य का परिचय दिया!
विश्वोत्पत्यादि हेतवे
क्या करते हैं?… विश्व की उत्पत्ती करते हैं! आगे आदि शब्द भी जुड़ा है, तो आदि का मतलब…?उत्पत्ती ही नहीं करते और भी कुछ करते हैं, क्या…?  उतपत्ती, स्थिती और लय, मतलब जन्म भी  देते हैं, पालन, पोषण भी करते हैं, और फिर विनाश भी कर देते हैं!

किसी ने कहा महाराज​! उत्पत्ती, स्थिती, और लय तो हम भी करते हैं! अच्छी बात है, पर उसकी उत्पत्ती, स्थिती, लय में और उत्पत्ती, स्थिती, लय में बहुत अंतर है! हमारी उत्पत्ती में मोह है, पालन में अपेक्षा है, और लय में सोक है! कैसे?.. हम उत्पत्ती करते हैं तो संतान से मोह होता है, हम उसका पालन, पोषण करते हैं, पढा़ते- लिखाते हैं, योज्ञ बनाते हैं! फिर हम उससे अपेक्षा रखते हैं, की अब तो हम बूढे़ हो ग​ए हैं, अब पुत्र ही  हमारी सेवा करेगा, ये अपेक्षा है! पर हमें मिलता क्या है?.. उपेक्षा! हमारा ही बेटा हमें, अपनाने से मना कर देता है! मोह हुआ, अपेक्षा भी हुई, अब यदी दैव बस किसी दुर्घटना में वह पुत्र मारा गया, तो शोक भी हो गया!

परन्तु परमात्मा को, न तो अपनी उत्पत्ती पर मोह होता है, न ही अपेक्षा और न शोक, क्योंकि जहां मोह है, वहां शोक,  और जहां अपेक्षा वहां उपेक्षा का होना अनिवार्य है! भगवान सूर्य नारायण, हमने जब से देखा वे समय से उदय समय से अस्त होते हैं, पूरी पृथ्वी को  प्रकाशित करते हैं! जिस कारण ही हमारा जीवन है, तो क्या उन्होंने आपको कभी विल भेजा! पवन देवता, वरुण देवता ने कभी किराया मांगा, हमारी हवा लेते हो, हमारा पानी पीते हो लो ये विल चुकाओ! ब्रम्ह को अपनी श्रृष्टी में न तो मोह है, और न ही अपेक्षा! उत्पत्ती, स्थिती,  और लय यह परमात्मा का कार्य परिचय हुआ!  अब इनका स्वभाव कैसा है?..

तापत्रय विनाशाय श्रीकृष्णाय वयं नुम​:
तो स्वभाव कैसा है?..

महाराज नमस्कार करने मात्र से मानव के तीनों तापों को मिटा देतें हैं! इतने दयालू स्वभाव के हैं!  केवल नमस्कार करने मात्र से सारे दु:ख दूर हो जाते हैं!

श्रीमद्भागवती वार्ता सुराणामपि दुर्लभा |
सौनक जी  यह श्रीमद् भागवत की कथा देवताओं के लिए भी दुर्लभ है जब श्री सुखदेव जी ने देवताओं की हंसी उड़ा दी तो देवता मुंह लटका कर ब्रह्मा जी के पास आए तथा पृथ्वी में जो घटना हुई थी वह सब ब्रह्माजी से कह सुनाएं ब्रह्मा जी ने कहा देवताओं दुखी मत हो 7 दिन के पश्चात देखते हैं राजा परीक्षित की क्या गति होती है और 7 दिन के पश्चात जब राजा परीक्षित को मोक्ष को देखा तो ब्रह्मा जी को बड़ा आश्चर्य हुआ उन्होंने सत्यलोक में एक तराजू बांधा उसमें एक तरफ संपूर्ण साधनों को रखा और दूसरी तरफ श्रीमद्भागवत को रखा भागवत जी की महिमा के सामने समस्त साधन हल्के पड़ गए|
=  मेनिरे भगवद्रूपं शास्त्र भागवते कलौ |   पठनाच्र्छवणात्सद्यो वैकुण्ठफलदायकम् ||
उस समय समस्त ऋषियों ने माना इस भागवत को पढ़ने से श्रवण से वैकुंठ की प्राप्ति निश्चित होती है यह श्रीमद् भागवत की कथा देवर्षि नारद ने ब्रह्मा जी से सुनी परंतु साप्ताहिक कथा उन्होंने  सनकादि ऋषियों से  सुनी शौनक जी ने कहा देवर्षि नारद तो एक ही स्थान पर अधिक देर ठहर नहीं सकते फिर उन्होंने किसी स्थान पर और किस कारण से इस कथा को सुना श्री सूतजी कहते हैं एक बार विशालापुरी बद्रिका आश्रम में सत्संग के लिए सनकादि चारों ऋषि आए वहां उन्होंने नारद जी को आते हुए देखा तो पूछा

=  कथं ब्रह्मन्दीनमुखं कुतश्चिन्तातुरो भवान् |     त्वरितं गम्यते कुत्र कुतश्चागमनं तव ||
देवर्षि इस प्रकार आप चिंतातुर क्यों हैं इतने शीघ्र तुम्हारे आगमन कहां से हो रहा है और अब तुम कहां जा रहे हो देवर्षि नारद ने कहा
==अहं तु प्रथवीं यातो ज्ञात्वा सर्वोत्तमामिति |
मुनिस्वरों में पृथ्वी लोक को उत्तम मान वहां पुष्कर प्रयाग काशी गोदावरी हरिद्वार कुरुक्षेत्र श्रीरंग और सेतुबंध रामेश्वर आदि तीर्थों में भ्रमण करता रहा परंतु मन को संतोष प्रदान करने वाली शांति मुझे कहीं नहीं मिली अधर्म के मित्र कलयुग में समस्त पृथ्वी को पीड़ित कर रखा है सत्य तपस्या पवित्रता दया दान कहीं भी दिखाई नहीं देता सभी प्राणी अपने पेट भरने में लगे हुए हैं |
= पाखण्ड निरताः सन्तो विरक्ताः सपरिग्रहाः ||
संत पाखंडी हो गए विरक्त संग्रही हो गये
तपसि धनवंत दरिद्र गृही |  कलि कौतुक तात न जात कही ||
घर में स्त्रियों की प्रभुता चलती है साले सलाहकार बन गए हैं पति-पत्नी में झगड़ा मचा रहता है इस प्रकार से कलयुग के दोषों को देखता हुआ यमुना के तट श्री धाम वृंदावन में पहुंचा जहां भगवान श्री कृष्ण की लीला स्थली है वहां मैंने एक आश्चर्य देखा वह एक युवती स्त्री खिन्न मन से बैठी हुई थी उसके समीप में दो वृद्ध पुरुष अचेत अवस्था में पड़े जोर जोर से सांस ले रहे थे वह युवती उन्हें जगाने का प्रयास करती जब वह नहीं जागते तो वह रोने लगती सैकड़ों स्त्रियों उसे पंखा कर रही थी और बारंबार समझा रही थी यह आश्चर्य दूर से देख मैं पास में चला गया मुझे देखते ही वह युवती स्त्री खड़ी हो गई और कहने लगी |
= भो भो साधो क्षणं तिष्ठ मच्चिन्तामपि नाशय ||
हे महात्मन कुछ देर ठहर जाइए और मेरी चिंता को नाश कीजिए मैंने कहा देवी आप कौन हैं यह दोनों पुरुष और यह स्त्रियां कौन हैं तथा अपने दुख का विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिए उस युवती ने कहा |
= अहं भक्तिरिति ख्याता इमौ मे तनयौ मतौ |
ज्ञान वैराग्यनामानौ कालयोगेन जर्जरौ ||
देवर्षि में भक्ति हूं और यह दोनों ज्ञान वैराग्य मेरे पुत्र हैं काल के प्रभाव से यह वृद्ध हो गए हैं और यह सब गंगा आदि नदियां मेरी सेवा के लिए यहां आई है |
= उत्पन्ने द्रविणेसाहं वृध्दिं कर्णाटके गता |
क्वचित्क्वचिन्महाराष्ट्रे गुर्जरे जीर्णतां गता ||
मैं दक्षिण में उत्पन्न हुई तथा कर्नाटक में वृद्धि को प्राप्त हुई कहीं-कहीं महाराष्ट्र में सम्मानित हुई और गुजरात में जाकर जीर्णता को प्राप्त हो गई वहां घोर कलिकाल के कारण पाखंडियों ने मुझे अंग भंग कर दिया
= वृन्दावनं पुनः प्राप्य नवीनेन सुरूपिणी ||
और वृंदावन को प्राप्त करके पुनः में युवती हो गई परंतु मेरे पुत्र अभी भी वैसे ही थके-मांदे पड़े हुए हैं इसलिए अब मैं इस स्थान को छोड़कर अन्यत्र जाना चाहती हूं देवर्षि नारद ने कहा देवी यह दारुण कलयुग है जिसके कारण सदाचार योग मार्ग और तपस्या लुप्त हो गए हैं इस समय संत सत्पुरुष दुखी है और दुष्ट प्रशन्न है इस समय जिसका धैर्य बना रहे वही ज्ञानी है
==वृन्दावनस्य संयोगात्पुनस्त्वं तरुणीनवा |
धन्यं वृन्दावनं तेन भक्तिर्नृत्यति यत्र च ||
इस वृंदावन को प्राप्त करके आज पुनः आप युवती हो गई यह वृंदावन धन्य है जहां भक्ति महारानी नृत्य करती हैं भक्ति देवी कहती हैं देवर्षि यदि यह कलयुग ही अपवित्र है तो राजा परीक्षित ने इसे क्यों स्थापित किया और करुणा परायण भगवान श्रीहरि भी इस अधर्म को होते हुए कैसे देख रहे हैं देवर्षि नारद ने कहा देवी जिस दिन भगवान श्री कृष्ण इस लोक को छोड़कर अपने धाम में गए उसी समय साधनों में बाधा पहुंचाने वाला कलयुग आ गया दिग्विजय के समय राजा परीक्षित की दृष्टि जब इस पर पड़ी तो कलजुग दीन के समान उनकी शरण में आ गया भ्रमर के समान सार ग्राही राजा परीक्षित ने देखा |
= यत्फलं नास्ति तपसा न योगेन समाधिना |
तत्फलं लभते सम्यक्कलौ केशवकीर्तनात् ||
जो फल अन्य युगों में तपस्या योग समाधि के द्वारा नहीं प्राप्त होता था वह फल कलयुग में मात्र भगवान श्रीहरि के कीर्तन से प्राप्त हो जाता है इस एक गुण के कारण राजा परीक्षित ने कलयुग को स्थापित किया देवी इस कलिकाल के कारण पृथ्वी के संपूर्ण पदार्थ बीज हीन भूसी के समान व्यर्थ हो गए हैं धन के लोग के कारण कथा का सार चला गया
==अयं तु युगधर्मो हि वर्तते कस्य दूषणम् |
यह युगधर्म ही है इसमें किसी का कोई दोष नहीं देवर्षि नारद की इन वचनों को सुनकर भक्ति महारानी को बहुत आश्चर्य हुआ उन्होंने कहा देवर्षि आप धन्य हैं तथा मेरे भाग्य से ही आपका यहां आना हुआ साधुओं का दर्शन इस लोक में समस्त सिद्धियों को प्रदान करने वाला है |
==जयति जगति मायां यस्य काया धवस्ते
वचन रचनमेकं केवलं चाकलय्य |
ध्रुवपद मपि यातो यत्कृपातो ध्रुवोयं
सकल कुशल पात्रं ब्रह्मपुत्रं नतास्मि ||
जिन आपके एकमात्र उपदेश को धारण करके कयाधु नंदन प्रहलाद ने माया पर विजय प्राप्त कर ली और जिन आपकी कृपा से ध्रुव ने ध्रुव पद को प्राप्त कर लिया ऐसे ब्रह्मा जी के पुत्र देवर्षि नारद को मैं प्रणाम करती हूं देवर्षि नारद कहते हैं देवी आप भगवान श्री कृष्ण के चरण कमलों का स्मरण करो आपका दुख दूर हो जाएगा जिन भगवान श्री कृष्ण ने कौरवों के अत्याचार से द्रोपती की रक्षा की वे श्री कृष्ण कहीं गए नहीं हैं और आपको तो वह प्राणों से भी ज्यादा स्नेह करते हैं तुम्हारे बुलाने पर तो वह नीचे के घर भी चले जाते हैं देवर्षि नारद ने जब इस प्रकार भक्ति की महिमा का वर्णन किया तो भक्ति महारानी ने कहा देवर्षि आपने क्षण भर में मेरा दुख दूर कर दिया अब ऐसा प्रयास कीजिए कि मेरे पुत्रों का दुख भी दूर हो जाए और उन्हें चेतना प्राप्त हो जाए भक्ति महारानी के इस प्रकार कहने पर देवर्षि नारद ज्ञान बैराग को हिला डुला कर उठाने का प्रयास किया परंतु जब भी नहीं उठे तो उनका नाम पुकारने लगे इतने पर भी नहीं जागे तो वेद वेदांत का घोष और गीता का पाठ करने लगे इससे वे जैसे-तैसे जागे तो परंतु जभांई लेकर पुनः सो गई यह देख देवर्षि नारद चिंतित हो गए और गोविंद का चिंतन करने लगे उसी समय आकाशवाणी हुई

==उद्यमः सफलस्तेयं भविष्यति न शसयः ||
देवर्षि तुम्हारा उद्योग सफल होगा इसमें कोई संदेह नहीं है इसके लिए तुम सत्कर्म करो और वह सतकर्म  तुम्हें साधु पुरुष बताएंगे आकाशवाणी को सुन देवर्षि नारद विचार करने लगे आकाशवाणी ने भी गुप्त रूप से वर्णन किया है वह कौन सा साधन है जिसके करने से ज्ञान बैराग की मूर्छा दूर हो जाए देवर्षि नारद ने ज्ञान बैराग को वहीं छोड़ और तीर्थों में जाकर संत-महात्माओं उसे पता करने के लिए चल पड़े संत महात्माओं ने नारद जी को आते हुए देखा तो अपनी अवज्ञा के डर से मौन धारण कर लिया कई सन्त तो आश्रम छोड़ कर भाग खड़े हुए जब कोई भी किसी एक निर्णय पर नहीं पहुंचा तो देवर्षि नारद ने तपस्या करने का विचार किया क्योंकि

तपबल रचे प्रपंच विधाता तपबल विश्व सकल जग त्राता |
तपबल रुद्र करे संघारा तपबल शेष धरे महि भारा ||
तपस्या करने के विचार से देवर्षि नारद बद्रिका आश्रम आए वहां उन्होंने सनकादि मुनिस्वरों को देखा तो उनके चरणों में प्रणाम किया और उनसे कहा मुनेश्वर आप दिखाई तो 5 वर्ष के लगते हो परंतु हो आप पूर्वजों के पूर्वज निरंतर
हरि शरणम हरि शरणम
इसका जप करते रहते हैं जिससे वृद्धावस्था आप को बाधित नहीं करती जिन आपके भ्रूभंग मात्र से भगवान श्रीहरि के द्वारपाल जय और विजय बैकुंठ से पृथ्वी में गिर पड़े थे और जिन आपकी ही कृपा से उन्होंने पुनः बैकुंठ को प्राप्त कर लिया हे मुनीश्वर ओ आकाशवाणी ने जिस साधन के विषय में कहा है वह कौन सा साधन है बताइए सनकादि मुनीश्वरों  ने कहा देवर्षि प्रसन्न हो जाओ क्योंकि वह साधन बहुत सरल है और पहले से ही विद्यमान है

==श्रीमद्भागवतालापः स तु गीतः शुकादिभिः ||

वह है श्रीमद् भागवत की कथा जिसका गान सुकादि मुनीश्वर करते हैं इस श्रीमद्भागवत के द्वारा भक्ति ज्ञान वैराग्य तीनों को महान बल मिलेगा और ज्ञान बैराग दोनों का कष्ट दूर हो जाएगा देवर्षि नारद ने कहा मुनेश्वर जब वेद वेदांत की और गीता पाठ से ज्ञान वैराग्य की मूर्छा दूर नहीं हुई तो वह श्रीमद् भागवत से कैसे जगेंगे क्योंकि भागवत के प्रत्येक श्लोक और पद में वेदों का अर्थ ही तो निहित तो है सनकादि मुनिश्वरों  ने कहा देवर्षि जैसे वृक्ष में जड़ से लेकर सीखा पर्यंत रस विद्यमान है परंतु जो स्वाद फल से प्राप्त होता है वह स्वाद लता शिखा से नहीं प्राप्त हो सकता दुग्ध में घी विद्यमान है परंतु घी से जो पकवान बनाए जा सकते हैं वह दूध से नहीं बनाए जा सकते
घी के द्वारा आहुति देंगे तो अग्नि और ज्यादा प्रज्वलित हो जाएगी और दुग्ध से देंगे तो अग्नि शांत हो जाएगी इसी प्रकार गन्ने के प्रत्येक पर्व में शर्करा विद्यमान है परंतु यदि खीर बनानी हो तो गन्ने का पर्व डालने से उसमें मिठास नहीं आएगी मिठास तो शर्करा डालने से ही आएगी

==वेदोपनिषदां साराज्जाता भागवती कथा ||

यह जो श्रीमद् भागवत की कथा है यह वेदों का सार सर्वस्व है देवर्षि नारद ने कहा मुनिस्वरों मुझे भागवत की कथा कहां करनी चाहिए उसके लिए उपयुक्त स्थान बताइए सनकादि मुनिस्वरों  ने कहा

==गंगाद्वार समीपे तू तटमानंद नामकम

गंगा द्वार हरिद्वार के समीप में आनंद नामक तट है वहां नवीन और कोमल बालुका के ऊपर मंच बनाओ और भागवत की कथा प्रारंभ करो देवर्षि नारद ने सनकादि मुनिस्वरों को वक्ता के रूप में वरण  किया और उन्हें अपने साथ ही हरिद्वार ले आए वह बड़ा सुंदर मंच बनाया व्यास गद्दी बनाई उसमें सनकादि मुनिस्वरों  को बिठाला सनकादि मुनीश्वरों ने  जैसे ही भगवान की भागवत कथा प्रारंभ की त्रिलोकी में हल्ला मच गया ब्रह्मा आदि सभी देवता भ्रगु वशिष्ठ  च्यवन  आदि ऋषि वेद वेदांत मंत्र यंत्र तंत्र 17 पुराण गंगा आदि नदियां और समस्त तीर्थ मूर्तिमान होकर कथा सुनने के लिए प्रकट हो गए क्योंकि
==तत्रैव गगां यमुना त्रिवेणी गोदावरी सिन्धु सरस्वती च |
वसन्ति सर्वाणि तीर्थानि तत्र यत्राच्युतो दार कथा प्रसंगः ||

जहां भगवान श्री हरि की कथा होती है वहां गंगा आदि नदियां समस्त तीर्थ है मूर्तिमान होकर प्रकट हो जाते हैं देवर्षि नारद ने सभी को आसन दिया तथा सभी जय जयकार करने लगे सनकादि मुनीश्वरों ने भागवत की महिमा का वर्णन प्रारंभ किया
==सदा सेव्या सदा सेव्या श्रीमद्भागवती कथा |
यस्याः श्रवण मात्रेण हरिश्चित्तं समाश्रयेत ||

भागवत की कथा का सदा सर्वदा सेवन करना चाहिए श्रवण करना चाहिए इसके श्रवण मात्र से भगवान श्रीहरि हृदय में आकर विराजमान हो जाते हैं
==किं श्रुतैर्बहुभिः शास्त्रैः पुराणैश्च भ्रमावहैः |
एकं भागवतं शास्त्रं मुक्तिदानेन गर्जति ||
बहुत से पुराण और शास्त्रों को सुनने से क्या प्रयोजन यह तो भ्रम उत्पन करने वाले हैं मुक्ति प्रदान करने के लिए एकमात्र भागवत शास्त्र ही गर्जना कर रहा है मृत्यु का समय निकट आने पर जो भागवत कथा को श्रवण करता है भगवान श्रीहरि उस पर प्रसन्न होकर उसे अपना बैकुंठ धाम दे देते हैं जो पुरुष स्वर्ण के सिंहासन पर श्रीमद् भागवत की पोथी को रख कर दान करता है उसे गोलोक धाम की प्राप्ति होती है |

==आजन्ममात्रमपि येन शठेन किचिं
च्चित्तं विधाय शुकशास्त्र कथा न पीता |
चाण्डालवच्च खरवदवत् तेन नीतं.
मिथ्या स्वजन्म जननी जनिदुख भाजा ||
जिन्होंने अपने जीवन में मन लगाकर भागवत का श्रवण नहीं किया वह Chandaal अथवा गधे के समान है उसने व्यर्थ में ही अपनी मां को प्रसव पीड़ा प्रदान कि वह जीते जी मुर्दे के समान है मनुष्य रूप में भार रूप पशु के समान है ऐसे मनुष्य को धिक्कार है ऐसे स्वर्ग लोक में इंद्रादि देवता कहा करते हैं सनकादि मुनीश्वर इस प्रकार भागवत की महिमा का वर्णन कर ही रहे थे कि उसी समय एक आश्चर्य हुआ |

==भक्तिः सुतौ तौ तरूणौ गृहीत्वा  प्रेमैकरूपा सहसाविरासीत |
श्रीकृष्ण गोविन्द हरे मुरारे       नाथेति नामानि मुहुर्वदन्ति ||

भक्ति महारानी तरुण अवस्था को प्राप्त हुई अपने दोनों पुत्रों को लेकर वहां प्रकट हो गई और
श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारी हे नाथ नारायण वासुदेवा
इसका कीर्तन करते हुए नृत्य करने लगी रिसियों ने सब उन्हें नृत्य करते हुए देखा तो कहने लगे यह कौन है और यह कैसे प्रकट हो गई सनकादि मुनिश्वर  ने कहा रिसियों  यह अभी-अभी कथा के अर्थ से प्रगट हुई है भक्ति महारानी ने कहा मुनिश्वर कलिकाल के प्रभाव से में जीर्ण नष्ट हो गई थी आपने कथा के रस से मुझे पुनः पुष्ट  कर दिया

==क्वाहं तु तिष्ठाम्य धुना ब्रुवन्तु |
अब मुझे आप रहने का स्थान बताइए सनकादि मुनियों  ने कहा
==भक्तेषु गोविन्द सरुप कर्त्री
आप सदा सर्वदा भक्तों के हृदय में निवास करो

==सकलभुवनमध्ये निर्धनास्तेपि धन्या
निवसति ह्रदि येषां श्रीहरेर्भक्ति रेका |
हरिरपि निजलोकं सर्वथातो विहाय
प्रविशति ह्रदि तेषां भक्तिसूत्रो पनद्धः ||

संपूर्ण त्रिभुवन में वे लोग निर्धन होकर भी धनवान है जिनके हृदय में भगवान श्री हरि की एकमात्र भक्ति निवास करती है इस भक्ति के सूत्र में बंध कर भगवान श्री हरि अपना लोक छोड़कर उन भक्तों के हृदय में आकर विराजमान हो जाते हैं देवर्षि नारद ने भक्ति ज्ञान वैराग्य की तरुणावस्था को देखा तो कहने लगे मुनिस्वरों  मैंने भगवान की अलौकिक महिमा को देख लिया |
के के विशुध्दयन्ति वदन्तु मह्यं |
अब यह बताएं इस भागवत को सुनने से कौन-कौन से लोग पवित्र हो जाते हैं सनकादि मुनीश्वरों  ने कहा

ये मानवाः पाप कृतस्तु सर्वदा
सदा दुराचाररता विमार्गगाः |
क्रोधाग्निदग्धाः कुटिलाश्च कामिनः
सप्ताह यज्ञेन कलौ पुनन्ति ते ||

जो मनुष्य सदा सर्वदा पाप करते रहते हैं दुराचारी हैं कुमार्गगामी है क्रोध की अग्नि में सदा जलते रहते हैं कुटिल है कामी है ऐसे लोग भी कलयुग में भागवत के सुनने से पवित्र हो जाते हैं देवर्षि से इस विषय में मैं तुम्हें एक इतिहास सुनाता हूं जिसके सुनने मात्र से पाप नष्ट हो जाते हैं

सनत्कुमारजी ऐसा कह रहे थे कि भक्ति देवी प्रकट हो गयीं, ज्ञान और वैराग्य दोनों का बुढ़ापा दूर हो गया, सनत्कुमार बोले! भक्ति देवी आप आ गयी, तुम भक्तों के ह्रदय में वास करो, भक्ति प्रकट हो गयी भक्तों के ह्रदय में और जब कीर्तन होने लगा!

प्रहादस्तालधारी तरल गतितया चौद्धवः कांस्यधारी, वीणाधारी सुरषिं: स्वर कुशलता समकर्तार्जुनोऽभूत्।
इन्द्रोऽवादीन्मृदंगं जयजयसुकराः कार्तने ते कुमारा,यत्राग्रे भावक्ता सरसरचनया व्यास पुत्रो बभूव।।

प्रहलादजी ताली बजाने लगे, उद्धवजी कांसा बजाने लगे, देवराज इंद्र मृदंग बजाते है, सनत्कुमारजी जै-जैकार ध्वनि लगा रहे है और जितने भी संतजन वहाँ है, सब नृत्य कर रहे है, भोलेनाथ से नहीं रहा गया, पार्वती के साथ नृत्य करने मे तन्मय हो गये।

व्यास नन्दन आदरणीय शुकदेवजी महाराज बीच-बीच में व्याख्या करने लगे, इतनी सुन्दर स्वर लहरी, इतना सुंदर कीर्तन हुआ कि मेरे प्रभु से रहा नहीं गया और भगवान् कीर्तन में प्रकट हो गयेऔर कहां मैं आप लोगों की कथा एवम् कीर्तन से बड़ा प्रसन्न हूँ, इसलिए कोई उत्तम वरदान माँगे, क्या चाहिये?

भक्तों ने कहा प्रभु! यही वर दे दो, जब-जब आपका कीर्तन करें, तब-तब आपका दर्शन कर लिया करें, भगवान वर देकर चले गये, ज्ञान-वैराग्य का बुढापा मिट गया, भक्ति देवी के मन की कष्ट की निवृत्ति हुई, सूतजी ने ये प्रसंग शौनकादि ऋषियों को बता दिया, यही प्रसंग सनत्कुमारों ने नारदजी से कहा और यहीं प्रसंग श्री आदरणीय शुकदेवजी महाराज ने राजा परीक्षित से कहा।

भागवत अमृत है, इसका जो पान करे उसका जीवन धन्य हो जाता है,

उक्त श्रीमद्भागवतजी कथा के महात्म पश्चात ही प्रथम स्कन्ध का पाठ होता है!!

।।श्रीमद् भागवत कथा-सार माहात्म्य समाप्त।।