तृतीया के व्रत

तृतीया का व्रत भगवत गौरी देवी से सम्‍बन्धित होता है। यह सौभाग्‍यप्रदायक होता है। इसमें १. सौभाग्‍यतृतीया २. मनोरथतृतीया ३. अक्षयतृतीया ४. स्‍वर्णगौरीतृतीया ( मधुस्‍त्रवा ) ५. सुकृततृतीया ६. हरितालिकातृतीया ७. रम्‍भातृतीया आदि विशेष प्रसिद्धिप्राप्‍त व्रत है। त्रिमुहूर्तव्‍यापिनी उदयकालिकी तृतीया सर्वत्र ग्राहा् है। गौरी व्रत में स्‍वल्‍प दुतिया विद्धा तृतीया भी अग्राहा् है-  स्‍वल्‍पद्रितीया युक्‍तापि निषिद्धा।  तृतीया का क्ष्‍ाय होने पर ही दुतिया विद्धा तृतीया ग्रहण करना चाहिए – तदा पूर्वां शुद्धा षष्टिघटिकामपि त्‍यक्‍त्‍वा चतुर्थीयुतैव गौरीव्रते ग्राहा् । धर्मसिन्‍ध प्रथम परिच्‍छेद। ब्रहा्वैवर्तपुराण एवं आपस्‍तम्‍ब वचन के अनुसार चतुर्थी युक्‍त तृतीया ही फल देती है- चतुर्थी संयुता या तु सा तृतीया फलप्रदा। केवल ज्‍येष्‍ठशुक्‍ल की रम्‍भा तृतीया दितीया विद्धा ग्राहा् होती है। रम्‍भा तृतीया सूर्यास्‍त से तीन मुहूर्त (६ घटी ) पूर्व अवश्‍य प्राप्‍त होनी चाहिए। ऐसी स्थिति में यह दुतिया विद्धा होती है। रम्‍भा तृतीया का निर्णय अपवाद है अप्‍सरा रम्‍भा ने भगवती गौरी की आराधना कर सौभाग्‍य प्राप्‍त किया था।

                           4 चतुर्थी के व्रत

चतुथी का व्रत भगवान्‍ श्रीगणेश से सम्‍बन्धित होता है। इस व्रत को करने से विद्या , संतान, निर्विघ्‍नता, जीविका, सफलता तथा समृद्धि की प्राप्ति होती है। तृतीया विद्धा चतुर्थी हमेशा शुभ होती है। देवगुरू बृहस्‍पति के अनुसार-

चतुर्थी गणनाथस्‍य मातृविद्धा प्रशस्‍यते। मध्‍याह्रव्‍यापिन चेत्‍ स्‍यात्‍ परतश्‍चेत्‍ परेsहनि।।

शुक्‍लपक्ष क चतुर्थी को मध्‍याह्रव्‍यापिनी ग्राहा् होती है। कृष्‍णपक्ष की चतुर्थी चन्‍द्रोदयव्‍यापिनी ग्राहा् है। शुक्‍लपक्षीय चतुर्थी को वैनायकी तथा कृष्‍णपक्षीय चतुर्थी को संकष्‍टी कहते है। धर्मसिन्‍धु प्रथम परिच्छेद के अनुसार-

गौरीविनायकयोस्‍तु मध्‍याह्रव्‍यापिनीग्राहा्। संकष्‍टीचतुर्थी तु चन्‍द्रोदयव्‍यापिनीग्राहा्।