व्रत धारण करने की विधि

रविवारव्रत

मार्गशीर्ष ( अगहन ) मास के प्रथम रविवार से यह सूर्यप्रधान व्रत आरम्‍भ किया जाता है। इसक समाप्ति वैशाखमास शुक्‍लपक्ष के अन्तिम रविवार को की जाती है।

मार्गशीर्ष मास में तीन तुलसी पता खाकर रहा जाता है। प्रदोष काल में जल से पारण किया जाता है। पौषमास में तीन पल गोघृत पकर रहा जाता है। माघमास में तीन मुट्ठी तिल खाया जाता है। फाल्‍गुन मास में तीन पल दही ग्रहण करते है। चैत्र मास तीन पल दुग्‍ध, वैशाख मास में तीन पल गोबर ग्रहण किया जाता है। ध्‍येय है एक पल प्रायश: ५७ ग्राम के तुल्‍य होता है, तीन पल १७१ ग्राम के तुल्‍य ।

ज्‍येष्‍ठ से कार्ति मास के रविवार व्रत में अलग – अलग पदार्थो का ग्रहण उपदेशित है, जैसे- ज्‍येष्‍ठ तीन अंजली जल पिया जाता है। आषाढ़ में तीन काली ( गोल ) मिर्च ग्रहण किया जाता है,श्रावणमास में तीन पल सक्‍तु लिया जाता है, भाद्रमास में तन पल गोमूत्र , आश्विन में तीन पल शर्करा तथा कार्तिक में तीन पल हविष्‍य ( खीर ) लिया जाता है।

रविवार व्रत से समस्‍त त्‍वचा रोगों का नाश, नेत्रष्‍ट का नाश तथा ह्रदयकष्‍ट का नाश होता है। इस व्रत से राज्‍यत्‍व की प्राप्ति होती है। शाम्‍बपुराण में रविवार व्रत का विशेष वर्णन प्राप्‍त होता है।

 सोमवार व्रत का महत्‍व

स्‍वयं तथा परिवार के क्षेम, स्थिरता, विजय, आयु, आरोग्‍य और ऐश्‍वर्य की वृद्धि के लिए उमा महेश्‍वर की प्रीति के लिए सोमवार के लिए सोमवार व्रत किया जाता है। यह व्रत न्‍यूनतम एकमास या एकवर्ष से लेकर चौदहवर्षो तक के लिए उठाया ( संकल्पित किय ) जाता है। श्रावणमास, चैत्रमास, वैशाखमास, ज्‍येष्‍ठमास तथा मार्गशीर्षमास के सोमवार को व्रत करना पुण्‍यदायक होता है- श्रावणे चैत्रवैशाखे ज्‍येष्‍ठवा मार्गशीर्षके। सोमवारव्रतं पुण्‍य कथ्‍यमानं निबोध मे ।। ( व्रतराज ) सम्‍पूर्णश्रावणमास में सोमवारव्रत करने से श्री, समृद्धि, संतति, सौभाग्‍य, अक्षयलोक एवं मोक्ष की प्राप्ति होती है। इस व्रत के प्रभाव से सात जन्मों के पाप विनष्‍ट हो जाते है। जो व्‍यक्ति वर्षर्यन्‍त सोमवार का व्रत करता है उसके ऊपर भगवती पार्वती एवं भगवान्‍ शिव की कृपा होती है।

भगवान्‍ शिव का ध्‍यान मंत्र निम्नवद् है-

ध्‍यायेत्रित्‍यं महेशं रजतगिरिनिभं चारूचन्‍द्रावतंसं रत्‍नाकल्‍पोज्ज्‍वलाग्‍डं परशुमृगवराभीतिहस्‍तं प्रसन्‍नम्‍ । पदा्सीनं समन्‍तासत्‍स्‍तुतममरगणैव्‍याघ्रकृतिं विश्‍वद्यं विश्‍वन्‍द्यं निखिलभयहरं पश्‍ज्चवक्‍त्रं त्रिनेत्रम्‍ ।।

ऊँ नम: शिवाय  मंत्र से भगवान्‍ शिव की पूजा षोडषोपचारविधि से करने चाहिए । भगवान्‍ शिव की पूजा से इस लोक में सुख, स्‍वर्गलोक में संस्थिति और शिवलोक में मोक्षदायक स्‍थान प्राप्‍त होता है। केवल सोमवार के दिन शिव की पूजामात्र से भी इस पृथ्‍वी पर कुछ भी अप्राप्‍तव्‍य नही रहता- केवलं चापि ये कुर्य: सोमवारे शिवार्चनम्‍ । न तेषां विद्यते किंचिदिहामुत्र च दुर्लभम्‍ ।। सोमवार के दिन शिव क पूजा करके ब्रह्रा्चारी, गृहस्‍थ, यति प्रभृति पुरूष और अविवाहिता, विवाहिता, विधवा आदि स्त्रियॉं अभीष्‍ट वर को प्राप्‍त करती है। सोमवार व्रत में सफेद पुष्‍प, श्‍वेत मदार, मालती, सफेद कमल,चम्‍पा, कुन्‍द तथा पुन्‍नग पुष्‍प को भगवान्‍ शिव एवं भगवती पार्वती के ऊपर चढ़ाया जाता है। सूर्यास्‍त के पश्‍चात्‍ शिवपार्वती की पूजा करके पारणा की जाती है। बिल्‍वपत्र चढ़ाते समय महामृत्‍युज्‍जय मंत्र को बोलना चाहिए। – त्रिदलं त्रिगुणाकारं त्रिनेत्रं च त्रयायुधम्‍ । त्रिजन्‍मपापसंहारं बिल्‍वपत्रं शिवार्पणम्‍ ।।  भक्तिपूर्वक अर्धनारीश्‍वरस्‍तोत्र, शिवमहिम्‍नस्‍तोत्र, शिवताण्‍डवस्‍तोत्र, विश्‍वनाथाष्‍टक, रूद्राष्‍टक,रूद्रसुक्‍त आदि का पाठ करना चाहिए। ऊँ नम: शिवाय  इस पंचाक्षर मंत्र का रूद्राक्ष की माला पर जप करना चाहिए। भगवान्‍ शिव एवं भगवती पार्वती की धूप, दीप, नैवेद्य से पूजन कर अन्‍त में आरती करनी चाहिए । अंजलि में पुष्‍प लेकर निम्‍नलिखित प्रार्थना करनी चाहिए-

         भवाय भवनाशाय महादेवाय धीमते। उग्राय चोग्रनाशाय शवार्य शशिमौलिने।।

         रूद्राय नीलकण्‍ठाय शिवाय भवहारिणे । ईशानाय नमस्‍तुभ्‍यं सर्वकामप्रदाय च।।

         सोमेश्‍वरस्‍तथेशान: शंकरो गिरिजाधव:। महेश: सर्वभूतेश: स्‍मरारिस्त्रिपुरान्‍तक:।।

         शिव: पशुपति: शम्‍भुस्‍त्र्यम्‍बक: शशिशेखर:। गंगाधरो महादेवो वामदेव: सदाशिव:।।

सोमवारव्रत के उद्यापन में हवन अवश्‍य करना चाहिए। सपत्‍नीकगुरूपूजा कर दान देना चाहिए।पूजन कराने वाले विप्र को वस्‍त्रादि के साथ स्‍वर्ण या गौ आदि का दान करना चाहिए। दान अपनी क्षमता के अनुसार थोड़ा या अधिक किया जाता है। इस व्रत के प्रभाव से व्रतकर्ता भगवान्‍ शिव के लोक को प्राप्‍त करता है।

तृतीया के व्रत

तृतीया का व्रत भगवत गौरी देवी से सम्‍बन्धित होता है। यह सौभाग्‍यप्रदायक होता है। इसमें १. सौभाग्‍यतृतीया २. मनोरथतृतीया ३. अक्षयतृतीया ४. स्‍वर्णगौरीतृतीया ( मधुस्‍त्रवा ) ५. सुकृततृतीया ६. हरितालिकातृतीया ७. रम्‍भातृतीया आदि विशेष प्रसिद्धिप्राप्‍त व्रत है। त्रिमुहूर्तव्‍यापिनी उदयकालिकी तृतीया सर्वत्र ग्राहा् है। गौरी व्रत में स्‍वल्‍प दुतिया विद्धा तृतीया भी अग्राहा् है-  स्‍वल्‍पद्रितीया युक्‍तापि निषिद्धा।  तृतीया का क्ष्‍ाय होने पर ही दुतिया विद्धा तृतीया ग्रहण करना चाहिए – तदा पूर्वां शुद्धा षष्टिघटिकामपि त्‍यक्‍त्‍वा चतुर्थीयुतैव गौरीव्रते ग्राहा् । धर्मसिन्‍ध प्रथम परिच्‍छेद। ब्रहा्वैवर्तपुराण एवं आपस्‍तम्‍ब वचन के अनुसार चतुर्थी युक्‍त तृतीया ही फल देती है- चतुर्थी संयुता या तु सा तृतीया फलप्रदा। केवल ज्‍येष्‍ठशुक्‍ल की रम्‍भा तृतीया दितीया विद्धा ग्राहा् होती है। रम्‍भा तृतीया सूर्यास्‍त से तीन मुहूर्त (६ घटी ) पूर्व अवश्‍य प्राप्‍त होनी चाहिए। ऐसी स्थिति में यह दुतिया विद्धा होती है। रम्‍भा तृतीया का निर्णय अपवाद है अप्‍सरा रम्‍भा ने भगवती गौरी की आराधना कर सौभाग्‍य प्राप्‍त किया था।

चतुर्थी के व्रत

चतुथी का व्रत भगवान्‍ श्रीगणेश से सम्‍बन्धित होता है। इस व्रत को करने से विद्या , संतान, निर्विघ्‍नता, जीविका, सफलता तथा समृद्धि की प्राप्ति होती है। तृतीया विद्धा चतुर्थी हमेशा शुभ होती है। देवगुरू बृहस्‍पति के अनुसार-

चतुर्थी गणनाथस्‍य मातृविद्धा प्रशस्‍यते। मध्‍याह्रव्‍यापिन चेत्‍ स्‍यात्‍ परतश्‍चेत्‍ परेsहनि।।

शुक्‍लपक्ष क चतुर्थी को मध्‍याह्रव्‍यापिनी ग्राहा् होती है। कृष्‍णपक्ष की चतुर्थी चन्‍द्रोदयव्‍यापिनी ग्राहा् है। शुक्‍लपक्षीय चतुर्थी को वैनायकी तथा कृष्‍णपक्षीय चतुर्थी को संकष्‍टी कहते है। धर्मसिन्‍धु प्रथम परिच्छेद के अनुसार-

गौरीविनायकयोस्‍तु मध्‍याह्रव्‍यापिनीग्राहा्। संकष्‍टीचतुर्थी तु चन्‍द्रोदयव्‍यापिनीग्राहा्।

प्रदोष व्रत

शुक्‍लपक्ष एवं कृष्‍णपक्ष की प्रदोषकाल की त्रयोदशी ति‍थि को प्रदोषव्रत कहते है। प्रदोष के दिन निरहार रहकर प्रदोषकाल में भगवान्‍ शिव और भगवती पार्वती की पूजा करके पारणा की जाती है। भगवान्‍ शिव और पार्वती की पूजा में मालती, चम्‍पक, उत्‍पल, ( श्‍वेत कमल), कुमुद, कुन्‍द, मदार तथा शमी का महत्‍व अधिक है। बिल्‍वपत्र और तुलसीपत्र को भी प्रदोषव्रत में भगवान्‍ शिव पर अर्पित किया जाता है। कर्पूर, एला ( इलायची ), लौग, सुपारी, ताम्‍बूल, फल और दक्षिणा भी श्रद्धापूर्वक भगवान्‍ शिव को अर्पित क जाती है। अन्‍त में प्रदक्षिणा और प्रणाम अर्पित किया जाता है। भगवान्‍ शिव को पुष्‍पांजलि देते समय निम्‍नलिखित मंत्र को बोला जाता है।

    सेसंतिका- बकुल- चंपक- पाटलाब्‍जै: पुन्‍नाग- जाति करवीर- रसालपुष्‍पै:।

    बिल्‍वप्रवाल- तुलसीदल- मालतीभिस्‍त्‍वां पूजयामि जगदीश्‍वर में प्रसीद।।

                          वार के अनुसार प्रदोष का महत्‍व

   यदा त्रयोदशी शुक्‍ला मन्‍दवारेणसंयुता। आरभेत व्रतं तत्र सन्‍तानफलसिद्धये।।

   मन्‍दवारे प्रदोषोsयं दुर्लभ: सर्वदेहिनाम्‍ । तत्रापि दुर्लभस्‍तस्मिन्‍ कृष्‍णपक्षे समागत:।।

कृष्‍णपक्ष में शनिवार के दिन प्रदोष हो तो उसे दुर्लभ माना गया है। शनिप्रदोषव्रत करने से संतानफल की प्राप्ति होती है। यदि प्रदोषव्रत मंगलवार को पड़े तो उसे करने से ऋण का नाश होता है। शुक्रवार से युक्‍त प्रदोषव्रत करने से सौभाग्‍य, स्‍त्री एवं समृद्धि की प्राप्ति होती-

   ऋणनिर्मोचनार्थाय भौमवारेण संयुता। सौभाग्‍यस्‍त्रीसमृद्धश्‍चर्थ शुक्रवारेण संयुता।

रविवार से युक्‍त प्रदोष करने से आयु एवं आरोग्‍य क प्राप्ति होती है। सोमवार के दिन प्रदोषव्रत करने से सत्‍पुत्र की प्राप्ति क कामना से सोमप्रदोष किया जाता है।

     आयुरारोग्‍यसिद्धश्‍चर्थं भनुवाररेण संयुता। न कुले जायते तस्‍य दरिद्री दु:खितोsपि वा ।

                  अपुत्रो लभते पुत्रं वन्‍ध्‍या पुत्रवती भवेत्‍ ।

                 प्रदोषकालिक भगवान्‍ शिव की प्रार्थना

    जयदेव जगन्‍नाथ जय शक्‍डर शाश्‍वत । जय सर्वसुराध्‍यक्ष जय सर्वसुरार्चित ।।१।।

    जय सर्वगुणातीत जय सर्ववरप्रद। जय नित्‍य निराधार जय विश्‍वंभराव्‍य ।।२।।

    जयविश्‍वैकवन्‍देश जय नागेन्‍द्रभूष्‍ण। जय गौरीपते शम्‍भो जय नित्‍यनिरज्‍जन ।।३।।

    जय नाथ कृपासिन्‍धो जय भक्‍तार्तिभज्‍जन। जय दुस्‍तारसंसारसागरोतारण प्रभो ।।४।।

    प्रसीद में महादेव संसारादद्य खिद्यत । सर्वपापक्ष्‍ायं कृत्‍वा रक्ष मां परमेश्‍वर।।५।।

    महादारिद्रच्‍य मग्‍नस्‍य महापापहतस्‍य च। महाशोकनिविष्‍टस्‍य महारोगातुरस्‍य च ।।६।।

    ऋणभारपरीतस्‍य दहा्मानस्‍य कर्मभि:। ग्रहै: प्रपीडच्‍यमानस्‍य प्रसीद मम शक्‍डर ।।७।।

    दरिद्र: प्रार्थयेद्यवं पूजान्‍ते गिरिजापतिम्‍ । अभाग्‍यो वापि राजा वा प्रार्थयेद्येवमश्‍वरम्‍ ।।८।।

    दीर्घमायु: सदारोग्‍यं कोशवृद्धिर्बलोन्‍नति:। ममास्‍तु नित्‍यमानन्‍द: प्रसादात्‍ तव शक्‍डर ।।९।।

    शत्रवश्‍च क्षयं यान्‍तु प्रसीदन्‍तु ममप्रजा:। नश्‍यन्‍तु दस्‍यवो राज्‍ये जना:सन्‍तुनिरापद:।।१०।।

    दुर्भिक्षमारिसन्‍तापा: शमं यान्‍तु महितले। सर्वसस्‍यसमृद्धिश्‍च भूयात्‍सुखमया दिश:।।११।।

 अष्‍टमी के व्रत

शुक्‍ल एवं कृष्‍णपक्ष की अष्‍टमी तिथि में अनेक महत्‍वपूर्ण व्रत होते है इनका अपना अलग प्रभाव एवं स्थिति होती है। कतिपय महत्‍वपूर्ण व्रतो पर विचार किया जा रहा है-

१. भवानी अष्‍टमीव्रत –  चैत्र शुक्‍ल अष्‍टमी तिथि को भवान्‍यष्‍टमी व्रत होता है। आज के दिन भवानी की उत्‍पति हुई थी। यह नवमी विद्धा ग्राहा् होती-  भवान यस्‍तु पश्येत शुलाष्‍टम्‍यां मधौ नर:। न जातु शोकं लभते सदानन्‍दमयो भवेत्‍ ।। ( काशीखण्‍ड )। इस व्रत को करने से शोक नाश और आनन्‍द की प्राप्ति होती है।

२. अशोकाष्‍टमीव्रत (१) – चैत्र शुक्‍ल अष्‍टमी तिथि में पुनर्वसु नक्षत्र एवं बुधवार हो तो अतिप्रशस्‍त अशोकाष्‍टमी व्रत होता है। आज के दिन अशोक की आठ कलिका का भक्षण करना शोक मुक्ति का कारक होता है-  अशोककलिकाश्‍चाष्‍टौ ये पिबन्ति पुनर्वसौ। चैत्रे मासि सिताष्‍टम्‍यां न ते शोकमवाप्‍नुयु:।। (हेमाद्रि)। कलिका भक्षण करने से पूर्व निम्‍नलिखित प्रार्थना करनी चाहिए- त्‍वामशोक- वराभीष्‍टं मधुमाससमुभ्दवम्‍ । पिबामि शोकसन्‍तप्‍तो मामशोकं सदा कुरू।

३. बुधाष्‍टमीव्रत – शुक्‍लपक्ष क अष्‍टमी तिथि यदि बुधवार को पड़े तो बुधाष्‍टमी व्रत होता है। यह व्रत परविद्धा अर्थात्‍ नवमीविद्धा किया जाता है। चातुर्मास, चैत्रमास एवं संध्‍या में इस व्रत को नहीं करना चाहिए।- चैत्र मासि च सन्ध्‍यायां प्रसूते च जनार्दने। बुधाष्‍टम न कर्तव्‍या हन्ति पुण्‍यं पुराकृतम्‍ ।।

४. जन्‍माष्‍टमीव्रत-  भाद्रपद- कृष्‍णपक्ष की मध्‍यरात्रि में अष्‍टमी तिथि और रोहिण नक्षर के योग में श्रीकृष्‍णजन्‍माष्‍टमी व्रत होता है। इसे करने से भगवान्‍ वासुदेव श्रीकृष्‍ण क कृपा होती है।

५ ज्‍येष्‍ठादेव अष्‍टमीव्रत-  भाद्रपद – शुक्‍लपक्ष की अष्‍टमी तिथि एवं ज्‍येष्‍ठा नक्षत्र के योग से दु:ख दारिद्रच्‍य नाशक ज्‍येष्ठा अष्‍टमी व्रत होता है। ज्‍येष्‍ठा और अष्‍टमी का योग चाहे सप्‍तमी विद्धा में हो अथवा नवमी विद्धा में हो प्रशस्‍त होता है। सूर्य के कन्‍या राशि में होने पर यह व्रत और महत्‍वपूर्ण होता है। ज्‍येष्‍ठा देवी के पूजन से सुख, सम्‍पति, आयु की प्राप्ति होती है। अनुराधा में देवी का आवाहन, ज्‍येष्‍ठा में व्रत – पूजन तथा मूल नक्षत्र में विसर्जन करना चाहिए।

६. दूर्वाष्‍टमीव्रत-  भाद्रपद शुक्‍ल अष्‍टमी तिथि को दूर्वा की पूजा करने से वंशवृद्धि एवं आयुवृद्धि होती है। यह पूर्वविद्धा ग्राहा् है। कन्‍या के सूर्य में ज्‍येष्‍ठा और मूल नक्षत्र में इसे नहीं करना चाहिए। सिंह के सूर्य में यह प्रशस्‍त होती है-  शुक्‍लाष्‍टमी तिथिर्या तु मासि भाद्रपदे भवेत्‍। दूर्वाष्‍टमीति विज्ञेया नोतरा सा विधीयते। सिंहार्के एव कर्तव्‍या न कान्‍यार्के कदाचन।। इसे अगस्‍त्‍योदय से पहले करना चाहिए। यह अधिक मास के सिंहार्क में भी किया जाता है। पवित्र भूमि से दूर्वा उखाड़कर उसके ऊपर शिवलिंग की स्‍थापना कर भगवान्‍ त्रिलोचन शिव की पूजा की जाती है। उनके ऊपर सफेद दूर्वा और शमी चढ़ाई जात है। इस व्रत के प्रभाव से व्‍यक्ति विद्या, पुत्र, पुत्री, धर्म, अर्थ और पुण्‍य को प्राप्‍त करता है। दूर्वाष्‍टमी व्रत करने से सात पीढियों तक संतान सुखी रहती है। दूर्वा पूजन का मंत्र निम्‍नवत्‍ है- त्‍यं दूर्वेsमृतजन्‍मासि वन्दितासि सुरैरपि। सौभाग्‍यं सन्‍ततिं देहि सर्वकार्यकर भव।। यथा शाखाप्रशाखार्भिस्‍तृतासि महीतले। तथा विस्‍तृतसंतानं देहि त्‍वमजरामरे।।

७. महालक्ष्‍मी अष्‍टमीव्रत- भाद्रपद शुक्‍ल अष्‍टमी से आरम्‍भ कर आ‍श्विनकृष्‍ण अष्‍टमी ( चन्‍द्रोदय व्‍यापिनी ) तक चलने वाला यह व्रत महालक्ष्‍मी व्रत कहलाता है। यह सोलह दिनों का होता है। ज्‍येष्‍ठा नक्षत्र अष्‍टमी के योग से यह और उतम होता है। इसके अभाव में भी अर्धरात्रि व्‍यापिनी अष्‍टमी में इसे आरम्‍भ किया जाता है। काशी के लक्ष्‍मी कुण्‍ड पर स्थिति लक्ष्‍मी मंदिर में पूजन का विशेष महत्‍व है। श्री, लक्ष्‍मी, वरदा, विष्‍णुपत्‍नी, क्षीरसागरवासिनी, हिरण्‍यरूपा, सुवर्णमालिनी, पद्यवासिनी, पद्यप्रिया, मुक्‍तालंकारिणी, सूर्या, चन्‍द्रानना, विश्‍वमूर्ति, मुक्ति, मुक्तिदात्री, ऋद्धि, समृद्धि, तुष्टि,पुष्टि, धनेश्‍वरी, श्रद्धा, भोगिनी, भोगदात्री, धात्री इन चौबीस नामों से भगवती की पूजा क जाती है।    

८. महाष्‍टमीव्रत-  आश्विन मास के शुक्‍लपक्ष की अष्‍टमी तिथि के दिन दक्षयज्ञविनाशिनी, भगवती भद्रकाली का प्रादुर्भाव हुआ था। सप्‍तमी विद्धा अष्‍टमी सर्वथा त्‍याज्‍य होती है। उदयकाल में त्रिमुहूर्त न्‍यून होने पर भी सप्‍तमी रहिता ही करना चाहिए। इसे नवमी विद्धा करना चाहिए – स्‍तोकापि सा ति‍थि: पुण्‍या यस्‍यां सूर्योदयो भवेत्‍ । अष्‍टमी के क्षय में सप्‍तम विद्धा भी की जाती है- अलाभे तु सप्‍तमीयुतैव कार्या। आज के दिन स्‍पतशती का पाठ करके भगवती को प्रसन्‍न किया जाता है।

९. अशोकाष्‍टमीव्रत- (२) आश्विन मास के कृष्‍णपक्ष के अष्‍टमी तिथि के दिन अशोकाष्‍टमी व्रत होता है। आदित्‍यपुराण में इसका वर्णन प्राप्‍त है। इसमें चन्‍द्रोदय से पूर्व पारणा कर लेना चाहिए।इस व्रत के प्रभाव से जीवन शोकरहित होता है (व्रतराज)।

 १०. कालभैरवाष्‍टमीव्रत –  मार्गशीर्ष मास के कृष्‍णपक्ष की अष्‍टमी तिथि को कालभैरवाष्‍टमी कहते है। यह रात्रिव्‍यापिन ग्राह्रा् है- सा च रात्रिव्‍यापिनी ग्रह्रा्। आज की रात्रि में ही कालभैरव की उत्‍पति हुई थी। काशी के कालोदक कुण्‍ड में स्‍नान करके तर्पण करने का भी महत्‍व है। इस व्रत के प्रभाव से शिवलोक की प्राप्ति होती है।

११. श्रीशीतलाष्‍टमीव्रत – यह व्रत चैत्र, वैशाख, ज्‍येष्‍ठ और आषाढमास की अष्‍टमी ( उदया ) तिथि में किया जाता है। इसमें बासी (पर्युषित) खीर- पूड़ी- प्रसाद ग्रहण किया जाता है। यह एक वर्ष में चार बार आता है।

अंगारकचतुर्थीव्रत

यदि किसी भी महीने के शुक्‍ल या कृष्‍ण पक्ष में मंगलवार के दिन चतुर्थी तिथि पड़े तो उसे अंगारकचतुर्थी कहते है। इस व्रत को करने से ऋण से मुक्ति, पुत्रप्राप्ति तथा मगलजनित अशुभफल का नाश होता है। होलोत्‍सव के तत्‍काल बाद पड़ने वाला मंगल वृद्धअंगारकपर्व कहलाता है । इस दिन होली का पूर्णत: समापन हो जाता है।