शुक्ल एवं कृष्णपक्ष की अष्टमी तिथि में अनेक महत्वपूर्ण व्रत होते है इनका अपना अलग प्रभाव एवं स्थिति होती है। कतिपय महत्वपूर्ण व्रतो पर विचार किया जा रहा है-
१. भवानी अष्टमीव्रत – चैत्र शुक्ल अष्टमी तिथि को भवान्यष्टमी व्रत होता है। आज के दिन भवानी की उत्पति हुई थी। यह नवमी विद्धा ग्राहा् होती- भवान यस्तु पश्येत शुलाष्टम्यां मधौ नर:। न जातु शोकं लभते सदानन्दमयो भवेत् ।। ( काशीखण्ड )। इस व्रत को करने से शोक नाश और आनन्द की प्राप्ति होती है।
२. अशोकाष्टमीव्रत (१) – चैत्र शुक्ल अष्टमी तिथि में पुनर्वसु नक्षत्र एवं बुधवार हो तो अतिप्रशस्त अशोकाष्टमी व्रत होता है। आज के दिन अशोक की आठ कलिका का भक्षण करना शोक मुक्ति का कारक होता है- अशोककलिकाश्चाष्टौ ये पिबन्ति पुनर्वसौ। चैत्रे मासि सिताष्टम्यां न ते शोकमवाप्नुयु:।। (हेमाद्रि)। कलिका भक्षण करने से पूर्व निम्नलिखित प्रार्थना करनी चाहिए- त्वामशोक- वराभीष्टं मधुमाससमुभ्दवम् । पिबामि शोकसन्तप्तो मामशोकं सदा कुरू।
३. बुधाष्टमीव्रत – शुक्लपक्ष क अष्टमी तिथि यदि बुधवार को पड़े तो बुधाष्टमी व्रत होता है। यह व्रत परविद्धा अर्थात् नवमीविद्धा किया जाता है। चातुर्मास, चैत्रमास एवं संध्या में इस व्रत को नहीं करना चाहिए।- चैत्र मासि च सन्ध्यायां प्रसूते च जनार्दने। बुधाष्टम न कर्तव्या हन्ति पुण्यं पुराकृतम् ।।
४. जन्माष्टमीव्रत- भाद्रपद- कृष्णपक्ष की मध्यरात्रि में अष्टमी तिथि और रोहिण नक्षर के योग में श्रीकृष्णजन्माष्टमी व्रत होता है। इसे करने से भगवान् वासुदेव श्रीकृष्ण क कृपा होती है।
५ ज्येष्ठादेव अष्टमीव्रत- भाद्रपद – शुक्लपक्ष की अष्टमी तिथि एवं ज्येष्ठा नक्षत्र के योग से दु:ख दारिद्रच्य नाशक ज्येष्ठा अष्टमी व्रत होता है। ज्येष्ठा और अष्टमी का योग चाहे सप्तमी विद्धा में हो अथवा नवमी विद्धा में हो प्रशस्त होता है। सूर्य के कन्या राशि में होने पर यह व्रत और महत्वपूर्ण होता है। ज्येष्ठा देवी के पूजन से सुख, सम्पति, आयु की प्राप्ति होती है। अनुराधा में देवी का आवाहन, ज्येष्ठा में व्रत – पूजन तथा मूल नक्षत्र में विसर्जन करना चाहिए।
६. दूर्वाष्टमीव्रत- भाद्रपद शुक्ल अष्टमी तिथि को दूर्वा की पूजा करने से वंशवृद्धि एवं आयुवृद्धि होती है। यह पूर्वविद्धा ग्राहा् है। कन्या के सूर्य में ज्येष्ठा और मूल नक्षत्र में इसे नहीं करना चाहिए। सिंह के सूर्य में यह प्रशस्त होती है- शुक्लाष्टमी तिथिर्या तु मासि भाद्रपदे भवेत्। दूर्वाष्टमीति विज्ञेया नोतरा सा विधीयते। सिंहार्के एव कर्तव्या न कान्यार्के कदाचन।। इसे अगस्त्योदय से पहले करना चाहिए। यह अधिक मास के सिंहार्क में भी किया जाता है। पवित्र भूमि से दूर्वा उखाड़कर उसके ऊपर शिवलिंग की स्थापना कर भगवान् त्रिलोचन शिव की पूजा की जाती है। उनके ऊपर सफेद दूर्वा और शमी चढ़ाई जात है। इस व्रत के प्रभाव से व्यक्ति विद्या, पुत्र, पुत्री, धर्म, अर्थ और पुण्य को प्राप्त करता है। दूर्वाष्टमी व्रत करने से सात पीढियों तक संतान सुखी रहती है। दूर्वा पूजन का मंत्र निम्नवत् है- त्यं दूर्वेsमृतजन्मासि वन्दितासि सुरैरपि। सौभाग्यं सन्ततिं देहि सर्वकार्यकर भव।। यथा शाखाप्रशाखार्भिस्तृतासि महीतले। तथा विस्तृतसंतानं देहि त्वमजरामरे।।
७. महालक्ष्मी अष्टमीव्रत- भाद्रपद शुक्ल अष्टमी से आरम्भ कर आश्विनकृष्ण अष्टमी ( चन्द्रोदय व्यापिनी ) तक चलने वाला यह व्रत महालक्ष्मी व्रत कहलाता है। यह सोलह दिनों का होता है। ज्येष्ठा नक्षत्र अष्टमी के योग से यह और उतम होता है। इसके अभाव में भी अर्धरात्रि व्यापिनी अष्टमी में इसे आरम्भ किया जाता है। काशी के लक्ष्मी कुण्ड पर स्थिति लक्ष्मी मंदिर में पूजन का विशेष महत्व है। श्री, लक्ष्मी, वरदा, विष्णुपत्नी, क्षीरसागरवासिनी, हिरण्यरूपा, सुवर्णमालिनी, पद्यवासिनी, पद्यप्रिया, मुक्तालंकारिणी, सूर्या, चन्द्रानना, विश्वमूर्ति, मुक्ति, मुक्तिदात्री, ऋद्धि,समृद्धि, तुष्टि, पुष्टि, धनेश्वरी, श्रद्धा, भोगिनी, भोगदात्री, धात्री इन चौबीस नामों से भगवती की पूजा क जाती है।
८. महाष्टमीव्रत- आश्विन मास के शुक्लपक्ष की अष्टमी तिथि के दिन दक्षयज्ञविनाशिनी, भगवती भद्रकाली का प्रादुर्भाव हुआ था। सप्तमी विद्धा अष्टमी सर्वथा त्याज्य होती है। उदयकाल में त्रिमुहूर्त न्यून होने पर भी सप्तमी रहिता ही करना चाहिए। इसे नवमी विद्धा करना चाहिए – स्तोकापि सा तिथि: पुण्या यस्यां सूर्योदयो भवेत् । अष्टमी के क्षय में सप्तम विद्धा भी की जाती है-अलाभे तु सप्तमीयुतैव कार्या। आज के दिन स्पतशती का पाठ करके भगवती को प्रसन्न किया जाता है।
९. अशोकाष्टमीव्रत- (२) आश्विन मास के कृष्णपक्ष के अष्टमी तिथि के दिन अशोकाष्टमी व्रत होता है। आदित्यपुराण में इसका वर्णन प्राप्त है। इसमें चन्द्रोदय से पूर्व पारणा कर लेना चाहिए।इस व्रत के प्रभाव से जीवन शोकरहित होता है (व्रतराज)।
१०. कालभैरवाष्टमीव्रत – मार्गशीर्ष मास के कृष्णपक्ष की अष्टमी तिथि को कालभैरवाष्टमी कहते है। यह रात्रिव्यापिन ग्राह्रा् है- सा च रात्रिव्यापिनी ग्रह्रा्। आज की रात्रि में ही कालभैरव की उत्पति हुई थी। काशी के कालोदक कुण्ड में स्नान करके तर्पण करने का भी महत्व है। इस व्रत के प्रभाव से शिवलोक की प्राप्ति होती है।
११. श्रीशीतलाष्टमीव्रत – यह व्रत चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ और आषाढमास की अष्टमी ( उदया ) तिथि में किया जाता है। इसमें बासी (पर्युषित) खीर- पूड़ी- प्रसाद ग्रहण किया जाता है। यह एक वर्ष में चार बार आता है।