षोडश संस्कार

               संस्कार, शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक शुद्धि के लिए किये जाने वाले अनुष्ठानों का श्रेष्ठ आचार है। इस अनुष्ठान प्रक्रिया से मनुष्य की बाह्याभ्यन्तर शुद्धि होती है जिससे वह समाज का श्रेष्ठ आचारवान्‌ नागरिक बन सके। संस्कार शब्द अपने विशिष्ट अर्थ समूह को व्यक्त करता हैं। संस्कार शब्द सम्‌ पूर्वक कृ‌-धातु से घञ्‌ प्रत्यय करके निष्पन्न होता है। संस्कार शब्द का प्रयोग अनेक अर्थों में किया जाता है। संस्कृत वाङ्‌मय में इसका प्रयोग शिक्षा,संस्कृति, प्रशिक्षण, सौजन्य पूर्णता, व्याकरण संबंधी शुद्धि, संस्करण, परिष्करण, शोभा आभूषण, प्रभाव,स्वरूप, स्वभाव, क्रिया, फलशक्ति, शुद्धि क्रिया, धार्मिक विधि विधान, अभिषेक, विचार भावना, धारणा, कार्य का परिणाम, क्रिया की विशेषता आदि व्यापक अर्थों में किया जाता है।

हिन्दू संस्कारों में अनेक वैचारिक और धार्मिक विधियां सन्निविष्ट कर दी गयी हैं जिससे बाह्य परिष्कार के साथ ही व्यक्ति में सदाचार की पूर्णता का भी विकास हो सके। सविधि संस्कारों के अनुष्ठान से संस्कृत व्यक्ति में विलक्षण तथा अवर्णनीय गुणों का प्रादुर्भाव हो जाता है | विभिन्न गृह्यसूत्रों एवं स्मृतियों में संस्कारों की संखया में मतैक्य नहीं हैं तदपि परवर्ती काल में संस्कारों की संखया का निर्धारण कर दिया गया। इन संस्कारों में जन्मपूर्व सलेकर बाल्यकाल के 10 संस्कार और शेष 6 शैक्षणिक तथा अन्त्येष्टि पर्यन्त के संस्कार परिगणित हैं ङ्क

मनु ने ‘जन्मना जायते शूद्रः संस्काराद्‌द्विज उच्यते’ कहकर संस्कार की महत्ता का प्रतिपादन कर दिया है। संस्कार से ही द्विजत्व प्राप्त होता है। इसी वाक्य को आधार मानकर आर्य समाज के अधिष्ठाता स्वामी दयानन्द सरस्वती ने सम्पूर्ण आर्य जाति को संस्कार से द्विजत्व प्राप्ति का सिद्धान्त प्रतिपादित किया। षोडश संस्कारों के सबंध में संक्षिप्त परिचय,शास्त्रीय विधान का विवरण दिया जा रहा है विशेष विवरण विभिन्न पद्धतियों से जानना चाहिये।

जैसे खान में से निकला स्वर्ण पाषाण योग्य निमित्त पाकर मूल्यवान बन जाता है और र्इंट, चूना, सीमेंट आदि वस्तुएँ कारीगर के संयोग से सुन्दर महल के रूप में परिवर्तित हो जाती हैं, उसी प्रकार मानव पर्याय में गर्भ में आते ही बालक-बालिकाएँ उपयोगी संस्कार मिल जावें तो योग्य बन सकते हैं।

प्रथम तो बनने वाला पिण्ड, जहाँ जीव आता है, उस पर माता-पिता के जीवन का प्रभाव पड़ता है। गर्भाधान के पश्चात् माता के सद्विचार, आचार एवं आहार-विहार के प्रभाव से बालक की शक्तियाँ दृढ़ होती हैं। जैसे कच्चे गेहूँ और चने को सूर्य की धूप-पानी आदि पका देते है उसी प्रकार अपने बालक-बालिकाओं को सुसंस्कारित करने के लिए उचित निमित्त (संस्कार विधि) की आवश्यकता है।

माता के गर्भ में उत्पन्न होने के पश्चात् और गर्भ में आने के पूर्व संस्कारों का जो महत्व है तथा जिनसे जीवन निर्माण होता है, वे संस्कार सोलह प्रकार के होते हैं, अत: इन्हें षोडश संस्कार के नाम से जाना जाता है।

बिना साफ की गई भूमि में जिस प्रकार बीज फलीभूत नहीं होता, उसी प्रकार यह जीवित शरीर, विधिपूर्वक संस्कारों के बिना संयम, व्रत और शुभाचरण का पात्र नहीं होता।

गर्भ में आने वाले बालक को उसकी मानसिक और शारीरिक शक्तियों की दृढ़ता और कमजोरी माता द्वारा प्राप्त होती है। माता के मन, वचन, काय की क्रिया का असर संतान के ऊपर पड़ता है, अत: माता को विवेकशील और धर्मात्मा होना चाहिए।

संतान के पूर्वोपार्जित कर्म, उसके निर्माण में अन्तरंग निमित्त हैं और बाह्य निमित्त अन्य सामग्री होती है। जैसे माता के आहार का अंश गर्भस्थित संतान को प्राप्त होता है, जिससे उसके शरीर को पोषण मिलता है साथ ही उसके विचारों व क्रियाओं का उस पर असर होता है, अत: बच्चों को सुयोग्य बनाने के लिए योग्य माताओं के समान शास्त्रानुसार धार्मिक संस्कारों की आवश्यकता है। ये संस्कार वैज्ञानिक दृष्टि से भी द्रव्य परमाणु की शक्ति की अपेक्षा से बच्चों के मन, वचन और शरीर के भीतर अपना प्रभाव उत्पन्न करते हैं।

१. गर्भाधान संस्कार –

गृह्य सूत्र गर्भाधान के साथ ही संस्कारों का प्रारंभ करते हैं क्योंकि जीवन का प्रारम्भ इसी संस्कार से शुरू होता है | गर्भस्थापन के बाद अनेक प्रकार के प्राकृतिक दोषों के आक्रमण होते हैं, जिनसे बचने के लिए यह संस्कार किया जाता है। जिससे गर्भ सुरक्षित रहता है। विधिपूर्वक संस्कार से युक्त गर्भाधान से अच्छी और सुयोग्य संतान उत्पन्न होती है। विवाह केवल विषयाभिलाषा से ही नहीं, अपितु पुत्रोत्पत्ति एवं गृहस्थ जीवन में परस्पर सहयोग द्वारा सदाचरण, लोकसेवा तथा आत्मोन्नति के उद्देश्य से किया जाता है।

स्त्री को मासिक धर्म के तीन दिन, एकान्त में बिना किसी को स्पर्श किये, व्यतीत करना चाहिए। वह चौथे दिन स्नान कर घर के भोजन आदि विशेष कार्यों को न करते हुए बारह भावना का चिन्तवन करती रहे और साधारण कामकाज में भाग लेती रहे। पाँचवें दिन शुद्ध होकर मंदिर में जाकर भगवान दर्शन, पूजन, स्वाध्याय आदि करे। इस प्रकार उसे व्यवहार दृष्टि से ३ दिन और धर्म की दृष्टि से चार दिन की अशुद्धि पालनी चाहिए।

गर्भाधान संस्कार महर्षि चरक ने कहा है कि मन का प्रसन्न और पुष्ट रहना गर्भधारण के लिए आश्यक है इसलिए स्त्री एवं पुरुष को हमेशा उत्तर भोजन करना चाहिए और सदा प्रसन्नचित्त रहना चाहिए। गर्भ की उत्पत्ति के समय स्त्री और पुरुष का मन उत्साह, प्रसन्नता और स्वस्थ्यता से भरा होना चाहिए।

२. पुंसवन संस्कार –

पुंसवन संस्कार तीन महीने के पश्चात इसलिए आयोजित किया जाता है क्योंकि गर्भ में तीन महीने के पश्चात गर्भस्थ शिशु का मस्तिष्क विकसित होने लगता है। इस समय पुंसवन संस्कार के द्वारा गर्भ में पल रहे शिशु के संस्कारों की नींव रखी जाती है। मान्यता के अनुसार शिशु गर्भ में सीखना शुरू कर देता है, इसका उदाहरण है अभिमन्यु जिसने माता द्रौपदी के गर्भ में ही चक्रव्यूह की शिक्षा प्राप्त कर ली थी।

यह संस्कार चन्द्रमा के पुरुष नक्षत्रा में स्थित होने पर करना चाहिए। सामान्य गणेशार्चनादि करने के बाद गर्भिणी स्त्री की नासिका के दाहिने छिद्र मे गर्भ-पोषण संरक्षण के लिए लक्ष्मणा, बटशुङ्‌ग, सहदेवी आदि औषधियों का रस छोड़ना चाहिए। सुश्रत नें सूत्र स्थान में कहा है-

”सुलक्ष्मणा-वटशुङ्‌रग, सहदेवी विश्वदेवानाभिमन्यतमम्‌ क्षीरेणाभिद्युष्टय त्रिचतुरो वा विन्दून दद्यात्‌ दक्षिणे-नासापुटे”-सुश्रत संहिता।

उपर्युक्त प्रक्रिया से जाहिर है कि इस संस्कार में वैज्ञानिक विधि का आश्रय है जिससे शिशु की पूर्णता प्राप्त हो और सर्वाङ्‌ग रक्षा हो।

३. सीमन्तोन्नयन (धृति) संस्कार –

गर्भाधान के सीमंतोन्नायन संस्कार गर्भ के चौथे, छठवें और आठवें महीने में किया जाता है। इस समय गर्भ में पल रहा बच्चा सीखने के काबिल हो जाता है। उसमें अच्छे गुण, स्वभाव और कर्म का ज्ञान आए, इसके लिए मां उसी प्रकार आचार-विचार, रहन-सहन और व्यवहार करती है। इस दौरान शांत और प्रसन्नचित्त रहकर माता को अध्ययन करना चाहिए। इस संस्कार में गर्भिणी स्त्री के केशों (सीमन्त) को ऊपर करना” सीमन्त उन्नीयते यस्मिन्‌ कर्मणि तत्‌ सीमन्तोन्नयनम्‌-वी.मि.

विधि- किसी पुरुष नक्षत्र में चन्द्रमा के स्थित होने पर स्त्री-पुरुष को उस दिन फलाहार करके इस विधि को सम्पन्न किया जाता है। गणेशार्चन, नान्दी, प्राजापत्य आहुति देना चाहिए। पत्नी अग्नि के पश्चिम आसन पर आसीन होती है और पति गूलरके कच्चे फलों का गुच्छ, कुशा, साही के कांटे लेकर उससे पत्नी के केश संवारता है -महाव्याहृतियों का उच्चारण करते हुए। अयभूर्ज्ज स्वतो वृक्ष ऊर्ज्ज्वेव फलिनी भव – पा.गृ. सूत्र | इस अवसर पर मंगल गान, ब्राह्मण भोजन आदि कराने की प्रथा थी।

शुभ मुहूर्त मृगशिरा, पुनर्वसु, पुष्य, हस्त, मूल, उत्तरात्रय, रोहिणी, रेवती इन में से किसी नक्षत्र में व रवि, मंगल, गुरु इन वारों तथा १, २, ३, ५, ७, १०, ११, १३ इन तिथियों में किसी तिथि में करें।

४. जातकर्म संस्कार –

बालक का जन्म होते ही जातकर्म संस्कार को करने से शिशु के कई प्रकार के दोष दूर होते हैं। इसके अंतर्गत शिशु को शहद और घी चटाया जाता है साथ ही वैदिक मंत्रों का उच्चारण किया जाता है ताकि बच्चा स्वस्थ और दीर्घायु हो। पिता आदि भी पुत्र को देखकर यह आशीर्वाद देवें। इस दिन बाजें बजवावें।

नोट – कन्या उत्पन्न होने पर भी पहले बताये समान यथायोग्य संस्कार करें। उसकी उपेक्षा न करें। क्योंकि कन्या रत्न मानी जाती है।

जातक के जन्मग्रहण के पश्चात्‌ पिता पुत्र मुख का दर्शन करे और तत्पश्चात्‌ नान्दी श्राद्धावसान जातकर्म विधि को सम्पन्न करे-

जातं कुमारं स्वं दृष्ट्‌वा स्नात्वाऽनीय गुरुम्‌ पिता।
नान्दी  श्राद्धावसाने   तु  जातकर्म   समाचरेत्‌

विधि-  पिता स्वर्णशलाका या अपनी चौथी अंगुली से जातक को जीभ पर मधु और घृत महाव्याहृतियों के उच्चारण के साथ चटावे। गायत्राी मन्त्रा के साथ ही घृत बिन्दु छोड़ा जाय। आयुर्वेद के ग्रंथों में जातकर्म-विधि का विधान चर्चित है कि पिता बच्चे के कान में दीर्घायुष्य मंत्रों का जाप करे। इस अवसर पर लग्नपत्र बनाने और जातक के ग्रह नक्षत्रा की स्थिति की जानकारी भी प्राप्त करने की प्रथा है और तदनुसार बच्चे के भावी संस्कारों को भी निश्चित किया जाता है।

जन्म का १० दिन का सूतक होने से गृहस्थाचार्य या जिनको सूतक न लगे, वे मंदिर में पूजा करें।

५.  नामकरण संस्कार –

शिशु के जन्म के बाद 11वें दिन १२ या १६ दिन यह नामकरण संस्कार किया जाता है। मूल शान्ति-यदि मूल या उसके समान नक्षत्रों में पुत्र-पुत्री हों तो उस नक्षत्र की शांति हेतु  जन्म से २८वें दिन जब वही नक्षत्र आता है, तब की जाती है।  ज्योतिष शास्त्र के अनुसार बच्चे का नाम तय किया जाता है। बहुत से लोगों अपने बच्चे का नाम कुछ भी रख देते हैं जो कि गलत है। उसकी मानसिकता और उसके भविष्य पर इसका असर पड़ता है। जैसे अच्छे कपड़े पहने से व्यक्तित्व में निखार आता है उसी तरह अच्छा और सारगर्भित नाम रखने से संपूर्ण जीवन पर उसका प्रभाव पड़ता है।

नामकरण एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण संस्कार है जीवन में व्यवहार का सम्पूर्ण
आधार नाम पर ही निर्भर होता है

नामाखिलस्य व्यवहारहेतुः शुभावहं कर्मसु भाग्यहेतुः
नाम्नैव कीर्तिं लभेत मनुष्यस्ततः प्रशस्तं खलु नामकर्म।- बी.मि.भा. 1

उपर्युक्त स्मृतिकार बृहस्पति के वचन से प्रमाणित है कि व्यक्ति संज्ञा का जीवन में सर्वोपरि महत्त्व है अतः नामकरण संस्कार हिन्दू जीवन में बड़ा महत्त्व रखता है।

शतपथ ब्राह्मण में उल्लेख है कि ङ्क

तस्माद्‌ पुत्रस्य जातस्य नाम कुर्यात्‌
पिता नाम करोति एकाक्षरं द्वक्षरंत्रयक्षरम्‌ अपरिमिताक्षरम्‌ वेति-वी.मि.

द्वक्षरं प्रतिष्ठाकामश्चतुरक्षरं ब्रह्मवर्चसकामः

प्रायः बालकों के नाम सम अक्षरों में रखना चाहिए। महाभाष्यकार ने व्याकरण के महत्व का प्रतिपादन करते हुए नामकरण संस्कार का उल्लेख किया ङ्क

याज्ञिकाः पठन्ति-”दशम्युतरकालं जातस्य नाम विदध्यात्‌
घोष बदाद्यन्तरन्तस्थमवृद्धं त्रिापुरुषानुकम नरिप्रतिष्ठितम्‌।

तद्धि प्रतिष्ठितमं भवति। द्वक्षरं चतुरक्षरं वा नाम कुर्यात्‌ न तद्धितम्‌ इति। न चान्तरेण व्याकरणकृतस्तद्धिता वा शक्या विज्ञातुम्‌।- महाभाष्य

उपर्युक्त कथन में तीन महत्त्वपूर्ण बातों का उल्लेख है-

(1) शब्द रचना (2) तीन पुस्त के पुरखों के अक्षरों का योग (3) तद्धितान्त नहीं होना चाहिए अर्थात्‌ विशेषणादि नहीं कृत्‌ प्रत्यान्त होना चाहिए।

विधि-विधान-गृह्य सूत्रों के सामान्य नियम के अनुसार नामकरण संस्कार शिशु के जन्म के पश्चात्‌ दसवें या बारहवें दिन सम्पन्न करना चाहिए –

द्वादशाहे  दशाहे वा जन्मतोऽपि त्रायोदशे।
षोडशैकोनविंशे वा द्वात्रिंशेवर्षतः क्रमात्‌॥

संक्रान्ति, ग्रहण, और श्राद्धकाल में संस्कार मंगलमय नही माना जाता। गणेशार्चन करके संक्षिप्त व्याहृतियों से हवन सम्पन्न कराकर कांस्य पात्रा में चावल फैलाकर पांच पीपल के पत्तों पर पांच नामों का उल्लेख करते हुए उनका पद्द्रचोपचार पूजन करे। पुनः माता की गोद में पूर्वाभिमुख बालक के दक्षिण कर्ण में घरके बड़े पुरुष द्वारा पूजित नामों में से निर्धारित नाम सुनावे। हे शिशोᅠ!तव नाम अमुक शर्म-वर्म गुप्त दासाद्यस्ति” आशीर्वचन निम्न ऋचाओं का पाठ-

”वेदोऽसि येन त्वं देव वेद देवेभ्यो वेदोभवस्तेन मह्यां वेदो भूयाः। अङ्‌गादङ्‌गात्संभवसि हृदयादधिजायते आत्मा वै पुत्रा नामासि सद्द्रजीव शरदः शतम्‌’। गोदान-छाया दान आदि कराया जाय। लोकाचार के अनुसार अन्य आचार सम्पादित किये जायें।

बालिकाओं के नामकरण के लिए तद्धितान्त नामकरणकी विधि है। बालिकाओं के नाम विषमाक्षर में किये जायें और वे आकारान्त या ईकारान्त हों। उच्चारण में सुखकर, सरल, मनोहर मङ्‌गलसूचक आशीर्वादात्मक होने चाहिए।

स्त्रीणां च सुखम्‌क्रूरं विस्पष्टार्थं मनोहरम्‌।
मत्त्ल्यं  दीर्घवर्णान्तमाशीर्वादाभिधानवत्‌। – वी.मि.

६. निष्क्रमण (बहिर्यान) संस्कार –

जन्म के चौधे माह में निष्क्रमण संस्कार किया जाता है। निष्क्रमण का अर्थ होता है बाहर निकालना। प्रथम बार शिशु के सूर्य दर्शन कराने के संस्कार को निष्क्रमण कहा गया है।  हमारा शरीर पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश आदि से बना है जिन्हें पंचभूत कहा जाता है। इसलिए पिता इन देवताओं से बच्चे के कल्याण की प्रार्थना करते हैं। साथ ही कामना करते हैं कि शिशु दीर्घायु रहे और स्वस्थ रहे।

विधि- भलीभांति अलंकृत बालक को माता गोद में लेकर बाहर आये और कुल देवता के समक्ष देवार्चन करे। पिता पुत्र को-तच्चक्षुर्देव ……..आदि मंत्र का जाप करके सूर्य का दर्शन करावे –

ततस्त्वलंकृता धात्राी बालकादाय पूजितम्‌।
बहिर्निष्कासयेद्‌ गेहात्‌ शङ्‌ख पुण्याहनिः स्वनैः। – विष्णुधर्मोत्तर

आशीर्वाद – अप्रमत्तं प्रमत्तं  वा दिवारात्रावथापि वा।
रक्षन्तु सततं सर्वे देवाः शक्र पुरोगमाः॥

गीत, मंगलाचरण और बालक के मातुल द्वारा भी आशीर्वाद दिलाया जाय।

७. अन्नप्राशन संस्कार –

अन्नप्राशन संस्कार बच्चे के दांत निकलने के समय अर्थात 6-7 महीने की उम्र में किया जाता है। इस संस्कार के बाद बच्चे को अन्न खिलाने की शुरुआत हो जाती है। प्रारंभ में उत्तम प्रकार से बना अन्न जैसे खीर, खिचड़ी, भात आदि दिया जाता है।

विधिपूर्वक बालक को प्रथम भोजन कराने की प्रथा अत्यन्त प्राचीन है। वेदों और उपनिषदों में भी एतत्‌ सम्बन्धी मंत्र उपलब्ध होते हैं। माता के दूध से पोषित होने वाले बालक को प्रथम बार अन्नप्राशन कराने का प्रचलन प्रायः प्राचीन काल से ही है|

विधि- विधान-अन्नप्राशन संस्कार के दिन सर्वप्रथम यज्ञीय भोजन के पदार्थ वैदिक मन्त्रों के उच्चारण के साथ पकाये जायें। भोजन विविध प्रकार के हों तथा सुस्वादु हों। मधु-घृत-पायस से बालक को प्रथम कवल (ग्रास) दिया जाय। पद्धतियों में एतत्‌
संबंधी मंत्रा उपलब्ध हैं। गणेशार्चन करके व्याहृतियों से आहुति देकर एतत्‌ संबंधी ऋचाओं से हवन करके तत्पश्चात्‌ बालक को मंत्रापाठ के साथ अन्नप्राशन कराया जाय पुनः यथा लोकाचार उत्सव सम्पन्न किया जाय।

८. चूड़ाकरण (मुण्डन) संस्कार –

 सिर के बाल जब प्रथम बार उतारे जाते हैं, तब वह चूड़ाकर्म या मुण्डन संस्कार कहलाता है। जब शिशु की आयु एक वर्ष हो जाती है तब या तीन वर्ष की आयु में या पांचवें या सातवें वर्ष की आयु में बच्चे के बाल उतारे जाते हैं। इस संस्कार से बच्चे का सिर मजबूत होता है तथा बुद्धि तेज होती है। साथ ही शिशु के बालों में चिपके कीटाणु नष्ट होते हैं जिससे शिशु को स्वास्थ्य लाभ प्राप्त होता है। मान्यता है गर्भ से बाहर आने के बाद बालक के सिर पर माता-पिता के दिए बाल ही रहते हैं। इन्हें काटने से शुद्धि होती है।

कुलों में मनौती के आधार पर मुण्डन किये जाते हैं किन्तु मुहूर्त निर्णय के लिए सभी ज्योतिष का आधार प्रायः स्वीकार करते हैं।

शिखा की व्यवस्था

मुण्डन संस्कार के कौल और शास्त्रीय आचार तो किये जाते हैं किन्तु शिखा रखने की प्रथा का प्रायः उच्चाटन होता जा रहा है। जबकि शिखा का वैज्ञानिक महत्त्व है और शास्त्राों में शिखाहीन होना गंभीर प्रायश्चित्त कोटि में आता है ङ्क

शिखा छिन्दन्ति ये मोहात्‌ द्वेषादज्ञानतोऽपि वा।
तप्तकृच्च्रेण शुध्यन्ति त्रायो वर्णा द्विजातयः- लघुहारित

चूड़ाकरण का शास्त्रीय आधार था दीर्घायुष्य की प्राप्ति। सुश्रुत ने (जो विश्व के प्रथम शीर्षशल्य चिकित्सक थे) इस सम्बन्ध में बताया है कि –

(11) मस्तक के भीतर ऊपर की ओर शिरा तथा सन्धि का सन्निपात है वहीं रोमावर्त में अधिपति है। यहां पर तीव्र प्रहार होने पर तत्काल मृत्यु संभावित है। शिखा रखने से इस कोमलांग की रक्षा होती है।

विधि- विधान-गणेशार्चन अग्निस्थापन-पद्द्रचवारूणीहवन-नन्दी के बाद पिता केशों का संस्कार यथाविधि करके स्वयं मंत्रा पाठ करता हुआ केश कर्त्तन करता है और उनका गोमयपिन्ड में उत्सर्ग करता है पुनः दही उष्णोदक शीतोदक से केशों को भिगोता और छुरे को अभिमन्त्रित करके नापित को वपन (मुण्डन) का आदेश देता है।

९  कर्ण वेध संस्कार –

कर्णवेध संस्कार का अर्थ होता है कान को छेदना। इसके पांच कारण हैं, एक- आभूषण पहनने के लिए। दूसरा- कान छेदने से ज्योतिषानुसार राहु और केतु के बुरे प्रभाव बंद हो जाते हैं। तीसरा इसे एक्यूपंक्चर होता जिससे मस्तिष्क तक जाने वाली नसों में रक्त का प्रवाह ठीक होने लगता है। चौथा इससे श्रवण शक्ति बढ़ती है और कई रोगों की रोकथाम हो जाती है। पांचवां इससे यौन इंद्रियां पुष्ट होती है। आभूषण धारण और वैज्ञानिक रूप से कर्ण छेदन का महत्त्व होने के कारण इस प्रक्रिया को संस्कार रूप में स्वीकारा गया होगा। कात्यायन सूत्रों में ही इसका सर्वप्रथम उल्लेख मिलता है। सुश्रुत ने इसके वैज्ञानिक पक्ष में कहा है कि कर्ण छेद करने से अण्डकोष वृद्धि,अन्त्रा वृद्धि आदि का निरोध होता है अतः जीवन के आरंभ में ही इस क्रिया को वैद्य द्वारा सम्पादित किया जाना चाहिए। सुश्रुत संहिता – षष्ठ अथवा सप्तम मास में शुक्ल पक्ष में शुभ दिन में वैद्य द्वारा माता की गोद में मधुर खाते बालक का अत्यन्त निपुणता से कर्ण वेध करना चाहिए। जब कि वृहस्पति जन्म से 10-12-16वें दिन करने को कहते हैं।

विधि– विधान-वर्तमान बालिकाओं का कर्णवेध तो आभूषण धारण के लिए अनिवार्यतः होता है किन्तु पुरुष वर्ग के वेध का प्रतीकात्मक ही संस्कार हो पाताᅠहै। गणेशार्चन, हवन आदि करके निम्न मंत्रों से क्रमशः दक्षिण-वाम कर्णों की
वेध की प्रक्रिया सम्पन्न की जाती है

१०. विद्यारंभ या अक्षरारंभ संस्कार –

इस महत्त्वपूर्ण संस्कार के संबंध में कौटिल्य का अर्थशास्त्र रघुवंश, उत्तररामचरित आदि में इसकी चर्चा है कि उपनयन और वेदारंभ के पूर्व अक्षरों का सम्यक्‌ ज्ञान अपेक्षित था और अक्षर ज्ञान के समय कुलाचार के अनुसार विधि-विधान किये जाते थे।

विधि- परवर्ती संग्रह ग्रंथों में इसकी विधि व्यवस्था प्राप्त है। उत्तरायण सूर्य होने पर ही शुभ मुहूर्त में गणेश-सरस्वती-गृह देवता का अर्चन करके गुरु के द्वारा अक्षरारंभ कराया जाय।

द्वितीय जन्मतः पूर्वामारभेदक्षरान्‌ सुधीः। ”पद्द्रचमे सप्तमेवाद्वे”-संस्कारप्रकाश-भीमसेन

तण्डुल प्रसारित पट्टिका पर-

श्री गणेशाय नमः, श्री सरस्वत्यै नमः, गृह देवताभ्योनमः श्री लक्ष्मीनारायणाभ्यां नमः लिखकर उसका पूजन कराया जाय और गुरु पूजन किया जाय और गुरु स्वयं बालक का दाहिना हाथ पकड़कर पट्टिका पर अक्षरारंभ करा दे।

११ उपनयन (यज्ञोपवीत) संस्कार –

यज्ञोपवित को उपनयन या जनेऊ संस्कार भी कहते हैं। प्रत्येक हिन्दू को यह संस्कार करना चाहिए। उप यानी पास और नयन यानी ले जाना। गुरु के पास ले जाने का अर्थ है उपनयन संस्कार। आज भी यह परंपरा है। जनेऊ यानि यज्ञोपवित में तीन सूत्र होते हैं। ये तीन देवता- ब्रह्मा, विष्णु, महेश के प्रतीक हैं। इस संस्कार से शिशु को बल, ऊर्जा और तेज प्राप्त होता है। साथ ही उसमें आध्यात्मिक भाव जागृत होता है।

भारतीय मनीषियों ने जीवन की समग्र रचना के लिए जिस आश्रम व्यवस्था की स्थापना की जिससे मनुष्य को सहज ही पुरुषार्थ चतुष्टय की प्राप्ति हो, किया गया प्रतीत होता है। ब्रह्मचर्य काल में धर्म का अर्जन एवं गृहस्थ जीवन में अर्थ-काम का उपभोग गीता के शब्दों में ‘धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ” धर्म-नियंत्रित अर्थ और काम तभी संभव था जब प्रारंभ में ही धर्म-तत्वों से मनुष्य दीक्षित हो जाय। इसके बाद जीवन के चरम लक्ष्य मोक्ष प्राप्त करने के लिए भी यौवन काल में अभ्यस्त धर्म ही सहायक होता है। इस प्रकार पुरुषार्थ चतुष्टय और आश्रम चतुष्टय में अन्योन्याश्रय प्रतीत होता है या दोनों आधाराधेय भाव से जुड़े हैं।

यौवन के पदार्पण करने के पूर्व किशोरावस्था में संस्कारित और दीक्षित करने का अनुष्ठान सार्वकालिक और विश्वजनीन है। सभी सम्प्रदायों में किसी न किसी रूप में दीक्षा की पद्धति चलती है और उसके लिए विशेष प्रकार के विधि विधानों के कर्मकाण्ड आयोजित किये जाते हैं। इन विधि-विधानों के माध्यम से संस्कारित व्यक्ति ही समाज में श्रेष्ठ नागरिक की स्थिति प्राप्त कर सकता है। इसी उद्देश्य से उपनयन संस्कार की परम्परा भारतीय मनीषा में स्थापित की थी।

‘हिन्दू संस्कार’-वास्तव में उपनयन संस्कार आचार्य के समीप दीक्षा के लिए अभिभावक द्वारा पहुंचना ही इस संस्कार का उद्देश्य था। इसी लिए इसके कर्मकाण्ड में कौपीन; मौञ्जी, मृगचर्म और दण्ड धारण करने का मंत्रों के साथ संयोजन है। सावित्री मंत्रा धारण द्विज को अपने ब्रह्मचारी वेष में अपनी माता से पहली भिक्षा और फिर समाज के सभी वर्ग से भिक्षाटन करने का अभ्यास इस संस्कार का वैशिष्ट्‌य है। इस व्यवस्था से ब्रह्मचारी को व्यष्टि से समष्टि और परिवार से बृहत्‌ समाज से जोड़ा जाता था जिससे व्यक्ति अपनी सत्ता को समष्टि में समाहित करें और अपनी विद्या बुद्धि शक्ति का प्रयोग समाज की सेवा के लिए करें।

वास्तव में यज्ञोपवीत के सूत्र धारण करने को ब्रतवंध कहते हैं जिससे ब्रह्मचारी की पहचान और उसको धारण करने वाले को अपनी दीक्षा संकल्प का सदा स्मरण रहे। सूत्र धारण कराकर उत्तरीय रखने की अनिवार्यता बताई गई है।

१२ वेदारंभ संस्कार –

इसके अंतर्गत व्यक्ति को वेदों का ज्ञान दिया जाता है।
वेदारंभ उपनयन संस्कार के बाद किया जाता है जो अब प्रतीकात्मक ही रह गया है। वास्तव में यह संस्कार मुखय रूप से वेद की विभिन्न शाखाओं की रक्षा के लिए उसके अभ्यास की परम्परा से जुड़ा है। अपनी कुल परम्परा के अनुसार वेद, शाखा सूत्र आदि के स्वाध्याय की पद्धति थी। जिसे अनिवार्य रूप से द्विजातियों को उसका अभ्यास

करना पड़ता था। कालान्तर में मात्रा पुरोहितों के कुलों में सीमित हो गई और अब उसका प्रायः लोप हो गया है। यही कारण है कि वेद की बहुत सी शाखायें उपलब्ध नहीं हैं क्योंकि श्रुति परम्परा से ही इसकी रक्षा की जाती थी। महर्षि पतद्द्रजलि ने भी महाभाष्य में इसकी चर्चा करते हुए कहा है कि अनेक शाखा-सूत्रों का लोप हो गया है।

वर्तमान पद्धतियों में चतुर्वेदों के मंत्राों का संग्रह कर दिया गया है जिसे उपनयन के बाद सावित्राी-सरस्वती-लक्ष्मी गणेश की अर्चना के बाद उपनीत बटु से उसका औपचारिक उच्चारण मात्रा करा दिया जाता है। अतः अब यह संस्कार उपनयन का अंगभूत भाग रह गया है।

१३ केशान्त संस्कार –

केशांत का अर्थ है लम्बी अवधि तक केशधारण करने वाले युवा ब्रह्मचारी का केश (बालों) का अंत करना, उन्हें समाप्त करना। विद्या अध्ययन से पूर्व भी केशांत या कहें कि मुंडल किया जाता है। शिक्षा प्राप्ति के पहले शुद्धि जरूरी है, ताकि मस्तिष्क ठीक दिशा में काम करें। प्राचीनकाल में गुरुकुल से शिक्षा प्राप्ति के बाद भी केशांत संस्कार किया जाता था।

विधि पूर्वक मंत्रोच्चारण के साथ यह सम्पन्न होता था। इस संस्कार के बाद ही ‘युवक’ को गृहस्थ जीवन के योग्य शारीरिक और व्यावहारिक योग्यता की दीक्षा दी जाती थी।

१४ समावर्त्तन संस्कार –

समावर्तन संस्कार अर्थ है विद्याध्ययन प्राप्त कर ब्रह्मचारी युवक का गुरुकुल से घर की ओर फिर से लौटना। आश्रम या गुरुकुल से शिक्षा प्राप्ति के बाद व्यक्ति को फिर से समाज में लाने के लिए यह संस्कार किया जाता था। इसका आशय है ब्रह्मचारी व्यक्ति को मनोवैज्ञानिक रूप से जीवन के संघर्षों के लिए तैयार किया जाना।
समावर्त्तन संस्कार गृहस्थ जीवन में प्रवेश की अनुमति देता है। उपनयन संस्कार से प्रारंभ होने वाली शिक्षा की पूर्णता के बाद ब्रह्मचर्य का कठोर जीवन व्यतीत करने वाले संस्कारित युवक को इस संस्कार के माध्यम से गार्हस्थ्य जीवन जीने की शिक्षा दी जाती थी। ऐसे संस्कारित युवक की स्नातक संज्ञा थी। स्नातक तीन प्रकार के होते थे (1) विद्या स्नातक (2) व्रत स्नातक (3)विद्याव्रत स्नातक। इनमें तीसरे प्रकार के स्नातक को ही गृहस्थ जीवन में प्रवेश का अधिकार मिलता था। क्योंकि ऐसा ही ब्रह्मचारी विद्या की पूर्णता के साथ ब्रह्मचर्य्य व्रत की भी पूर्णता प्राप्त कर लेता था। वर्तमान काल में भले10-12 वर्ष के बालक का उपनयन संस्कार के तत्काल समावर्त्तन का अधिकारी बना दिया जाताᅠहै। उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि समावर्त्तन संस्कार अति महत्वपूर्ण आचार प्रक्रिया थी जिससे संस्कारित और दीक्षित होकर युवक एक श्रेष्ठ गृहस्थ की योग्यता प्राप्त करता था।

१५ विवाहᅠसंस्कार –

उचित उम्र में विवाह करना जरूरी है। विवाह संस्कार सर्वाधिक महत्वपूर्ण संस्कार माना जाता है। इसके अंतर्गत वर और वधू दोनों साथ रहकर धर्म के पालन का संकल्प लेते हुए विवाह करते हैं। विवाह के द्वारा सृष्टि के विकास में योगदान ही नहीं दिया जाता बल्कि व्यक्ति के आध्यात्मिक और मानसिक विकास के लिए भी यह जरूरी है। इसी संस्कार से व्यक्ति पितृऋण से भी मुक्त होता है।

विवाह संस्कार हिन्दू संस्कार पद्धति का अत्यन्त महत्वपूर्ण संस्कार है। प्रायः सभी सम्प्रदायों में इसका महत्वपूर्ण स्थान है। विवाह शब्द का तात्पर्य मात्रा स्त्री-पुरुष के मैथुन सम्बन्ध तक ही सीमित नहीं है अपितु सन्तानोत्पादन के साथ-साथ सन्तान को सक्षम आत्मनिर्भर होने तक के दायित्व का निर्वाह और सन्तति परम्परा को योग्य लोक शिक्षण देना भी इसी संस्कार का अंग है। शास्त्राों में अविवाहित व्यक्ति को अयज्ञीय कहा गया है और उसे सभी प्रकार के अधिकारों के अयोग्य माना गया है-

मनुष्य जन्म ग्रहण करते ही तीन ऋणों से युक्त हो जाता है, ऋषि ऋण, देव ऋण, पितृऋण और तीनों ऋणों से क्रमशः ब्रह्मचर्य, यज्ञ, सन्तानोत्पादन करके मुक्त हो पाता है-जायमानो ह वै ब्राहणस्त्रिार्ऋणवान्‌ जायते-ब्रह्मचर्येण ऋषिभ्यो, यज्ञेन देवेभ्यः प्रजया पितृभ्यः-तै. सं. 6-3

गृहस्थाश्रम सभी आश्रमों का आश्रम है। जैसे वायु प्राणिमात्रा के जीवन का आश्रय है, उसी प्रकार गार्हस्थ्य सभी आश्रमों का आश्रम है –

विवाह अनुलोम रीति से ही करना चाहिए-प्रातिलोम्य विवाह सुखद नहीं होता अपितु परिणाम में कष्टकारी होता हैᅠ-

विवाह के प्रकार

प्राचीन काल से ही यौन सम्बन्धों में विविधता के वृत्त प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं अतः स्मृतियों ने इस प्रकार के विवाहों को आठ भागों में विभक्त कियाᅠहै।

(1) ब्राह्म (2) दैव (3) आर्ष  (4) प्राजापत्य (5) आसुर (6) गान्धर्व (7) राक्षस (8) पैचाश।

इनमें प्रथम चार प्रशस्त और चार अप्रशस्त की श्रेणी में रखे गये हैं। प्रथम चार में भी ब्राह्म विवाह सर्वोत्तम और समाज में प्रशंसनीय था शेष तरतम भाव से ग्राह्य थे। किन्तु दो सर्वथा अग्राह्य थे।

अप्रशस्त – निन्दनीय

(1)  पैशाच-सोती रोती कन्या का बलात्‌ अपहरण।

(2)  राक्षस-अभिभावकों को मारपीट कर बलात्‌ छीनकर रोती बिलखती कन्या का अपहरण इस कोटि का निन्दनीय विवाह था।

 (3) गान्धर्व-जब कन्या और वर कामवश होकर स्वेच्छापूर्वक परस्पर संयोग करते हैं तो ऐसा विवाह गान्धर्व विवाह होता है। म. स्मृति (3)

 (4) जिस विवाह में कन्या के पक्ष को यथेष्ट धन-सम्पत्ति देकर स्वच्छन्दतापूर्वक कन्या से विवाह किया जाता है ऐसा विवाह आसुर संज्ञक है।

 (5) वर स्वयं प्र्रस्ताव करके कन्या के पिता से विवाह का निवेदन करता और सन्तानोत्पादन के लिए विवाह स्वीकार किया जाता। ऐसा विवाह प्राजापत्य कोटि का था।

 (6)  आर्ष विवाह में कन्या का पिता वर से यज्ञादि कर्म के लिए दो गो मिथुन प्राप्त करके धर्म कार्य सम्पन्न कर लेता था और उसके बदले में कन्यादान करता था।

 (7) दैव

(8) ब्राह्म विवाह सबसे श्रेष्ठ प्रशंसनीय विधि मानी जाती है जिसमें कन्या का पिता योग्य वर को सब प्रकार सुसज्जित यथाशक्ति अलंकृत कन्या को गार्हस्थ्य जीवन की समस्त उपयोगी वस्तुओं के साथ समर्पित करता था।

सक्षेप में विवाह संस्था के उद्देश्य और उसके प्रकार का विवरण दिया गया है। विवाह के विविध-विधान के लिए देश-काल-प्रान्तभेद से पद्धतियां उपलब्ध हैं तदनुसार वैवाहिक संस्कार सम्पन्न किया जाना चाहिए।

१६ अन्त्येष्टि संस्कार –

अंत्येष्टि संस्कार इसका अर्थ है अंतिम संस्कार। शास्त्रों के अनुसार इंसान की मृत्यु यानि देह त्याग के बाद मृत शरीर अग्नि को समर्पित किया जाता है। आज भी शवयात्रा के आगे घर से अग्नि जलाकर ले जाई जाती है। इसी से चिता जलाई जाती है।

हिन्दू जीवन के संस्कारों में अन्त्येष्टि ऐहिक जीवन का अन्तिम अध्याय है। आत्मा की अमरता एवं लोक परलोक का विश्वासी हिन्दू जीवन इस लोक की अपेक्षा पारलौकिक कल्याण की सतत कामना करता है। मरणोत्तर संस्कार से ही पारलौकिक विजय प्राप्त होती है –

     विधि-विधान, आतुरकालिक दान, वैतरणीदान, मृत्युकाल में भू शयनव्यवस्था मृत्युकालिक स्नान, मरणोत्तर स्नान,पिण्डदान, (मलिन षोडशी) के 6 पिण्ड दशगात्रायावत्‌ तिलाञ्जलि, घटस्थापन दीपदान, दशाह के दिन मलिन षोडशी के शेष पिण्डदान एकादशाह के षोडश श्राद्ध,विष्णुपूजन शैय़्यादान आदि। सपिण्डीकरण, शय्यादान एवं लोक व्यवस्था के अनुसार उत्तर कर्म आयोजित कराने चाहिए। इन सभी कर्मों के लिए प्रान्त देशकाल के अनुसार पद्धतियां उपलब्ध हैं तदनुसार उन कर्मों का आयोजन किया जाना चाहिए।